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गोरखपुर का टेराकोटा: मिट्टी का जादू, जो बन गया शहर की शान!

गोरखपुर का टेराकोटा: मिट्टी का जादू, जो बन गया शहर की शान!
गोरखपुर का टेराकोटा - विश्व प्रसिद्ध शिल्प। जानें कैसे सदियों पुराना यह कला रूप कलाकारों के हुनर और सरकारी सहयोग से नई ऊंचाइयों को छू रहा है।

गोरखपुर: उत्तर प्रदेश के गोरखपुर की मिट्टी में छिपा है एक अद्भुत जादू – टेराकोटा कला का जादू। यह सिर्फ मिट्टी से बनी कलाकृतियां नहीं, बल्कि सदियों पुराने हुनर, रचनात्मकता और एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है, जिसने आज गोरखपुर को एक नई पहचान दी है।

टेराकोटा, जिसका अर्थ इतालवी भाषा में ‘पकी हुई मिट्टी’ है, मानव सभ्यता के विकास का साक्षी रहा है। कुम्हारों के हाथों से निकले दिए, कलश और घड़े जैसी उपयोगी वस्तुओं के साथ ही, टेराकोटा जैसी दिलकश कलाकृतियों ने भी लोगों को अपना दीवाना बनाया है। गोरखपुर से महज़ 15 किलोमीटर दूर औरंगाबाद गांव, जिसे जीआई टैग से नवाजा गया है, इस कला का एक जीवंत केंद्र है। यहाँ की मिट्टी में कलाकारों की कल्पना और हुनर का अनोखा मेल देखने को मिलता है, जहाँ सहजता, समर्पण, संस्कृति और आधुनिकता एक साथ आकार लेते हैं।

औरंगाबाद के हीरालाल प्रजापति जैसे कारीगरों की पीढ़ियां इस कला को संवार रही हैं। उनके पूर्वजों ने जहां साधारण वस्तुएं बनाईं, वहीं आज की पीढ़ी हाथी, घोड़े, गणेश जी की मूर्तियां, म्यूजिकल मैन और विभिन्न सजावटी सामान जैसी जटिल और आकर्षक कलाकृतियों का निर्माण कर रही है। यह सब कुछ हाथों से होता है; धर्मपाल प्रजापति जैसे कारीगर बताते हैं कि एक घोड़े को बनाने में तीन से चार घंटे लगते हैं, बिना किसी मशीन या डाई के। यह उनके असाधारण धैर्य और कौशल का प्रमाण है।

औरंगाबाद के टेराकोटा कलाकार द्वारा तैयार की गई आकर्षक मूर्ति. — फोटो: गो गोरखपुर.
औरंगाबाद के टेराकोटा कलाकार द्वारा तैयार की गई आकर्षक मूर्ति. — फोटो: गो गोरखपुर.

टेराकोटा की बढ़ती लोकप्रियता और मांग के बावजूद, इन कलाकारों के सामने अभी कई चुनौतियां हैं। गर्मी में मिट्टी का सूखना, माल भेजने में दिक्कतें और सबसे महत्वपूर्ण यह कि कड़ी मेहनत के बदले बहुत अच्छा दाम न मिलना। कलाकारों का कहना है कि अक्सर बिचौलिए इन कलाकृतियों को कम कीमत पर खरीदकर कई गुना अधिक दाम पर बेचते हैं, जिससे असली कारीगरों को उनका हक नहीं मिल पाता।

हालांकि, प्रदेश में योगी सरकार के आगमन के बाद इन शिल्पकारों को सशक्त बनाने के लिए प्रदेश सरकार लगातार कदम उठा रही है। लोन, प्रशिक्षण, चाक और मशीन जैसी सुविधाओं के साथ-साथ, टेराकोटा को वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट (ODOP) योजना में भी शामिल किया गया है। यह योजना इस कला को और अधिक पहचान दिलाने और कलाकारों को सीधा बाज़ार से जोड़ने में मदद कर रही है। कारीगरों की बस यही ख्वाहिश है कि सरकार उनकी कलाकृतियों के लिए एक उचित मूल्य तय करे और उन्हें बेहतर बाज़ार तक पहुँच मिले।

गोरखपुर का टेराकोटा अब सिर्फ स्थानीय पहचान तक सीमित नहीं है, बल्कि इसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाई है। प्रदर्शनी हॉल से लेकर ऑनलाइन प्लेटफॉर्म तक, गोरखपुर का टेराकोटा हर जगह धूम मचा रहा है। यह सिर्फ एक कला नहीं, बल्कि गोरखपुर की सांस्कृतिक विरासत का एक जीवंत हिस्सा है।

…जब जवाहर लाल नेहरू पहुंचे औरंगाबाद

स्थानीय लोग बताते हैं कि पंडित जवाहरलाल नेहरू भी इस कला से इतने प्रभावित हुए थे कि वे गोरखपुर आने पर औरंगाबाद गाँव आए और सुखराज नामक कारीगर की कृतियों की तारीफ की। इसके बाद सुखराज ने स्थानीय लोगों को प्रशिक्षण देना शुरू किया, और आज औरंगाबाद के लगभग हर घर में टेराकोटा की मूर्तियां बनाई जाती हैं। वर्तमान में गोरखपुर में 250 से अधिक परिवार इस काम से जुड़े हुए हैं।



Priya Srivastava

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About Author

Priya Srivastava दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय से पॉलिटिकल साइंस में परास्नातक हैं. गोगोरखपुर.कॉम के लिए इवेंट, एजुकेशन, कल्चर, रिलीजन जैसे टॉपिक कवर करती हैं. 'लिव ऐंड लेट अदर्स लिव' की फिलॉसफी में गहरा यकीन.

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