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बतकही: हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के…

बतकही

ज सुबह की टहलान में बात चली। बात बड़ी थी इसीलिए ग़ौरतलब भी। विचार बिंदु था कि जब तक हमारा कुछ नुकसान नहीं होता हम किसी और नुकसान को लेकर व्याकुल नहीं होते। जीवन के किसी मूल्य के क्षरण से समाज पर क्या असर पड़ेगा, वह किस दिशा में जाएगा? ऐसे गूढ़ ,गंभीर प्रश्नों पर तो किसी का ध्यान क्यों ही जाएगा? आप एक जिम्मेदार नागरिक हैं इसलिए आपसे कुछ कहना चाहता हूं।

टहलने वाली गोल में एक संभ्रांत व्यक्ति हैं। थोड़े समझदार भी लगते हैं। नौकरी पेशा रहे हैं। रिटायर हो गए हैं। वे कहीं से लौट रहे थे। एक बड़े शैक्षिक संस्थान के सामने से गुजरे। संस्थान का भव्य प्रवेश द्वार दिखा। लिखा था — …फलाने…स्मृति द्वार।

इस बात का आज की टहलान में वे गुणानुवाद करने लग गए। ‘क्या भाग्य है साहब? एक अक्षर पढ़ा लिखा नहीं, कट्टा बंदूक से हमेशा वास्ता रहा। क्या ही जनता है, सर पर बैठाया। जनता की सबसे बड़ी अदालत में पहुंचा दिया। और तो और, अब उनके खानदान में जनप्रतिनिधि ही पैदा हो रहे हैं। इतना ही नहीं उन्हें राजनीतिक पार्टियां मंत्री तक की कुर्सी से नवाज रही हैं।’

उनका यह कथन टहलने वाली गोल में विमर्श का विषय बन गया। एक सज्जन उनसे उलझ गए। हिकारत भरी दृष्टि से उनका प्रतिवाद किया। उनका कहना था कि तुलसीदास जी द्वारा लिखे गए रामचरितमानस में दो प्रमुख पात्र हैं। एक प्रभु श्रीराम और दूसरा रावण। प्रभु श्रीराम को उनके आदर्श चरित्र के कारण ही मर्यादा पुरुषोत्तम की संज्ञा दी गई है। वह हमारे समाज के आदर्श हैं। अब प्रश्न है कि रामचरितमानस में रावण का स्थान क्या है?

जाहिर सी बात है कि उसे खलनायक के रूप में ही देखा जाता है। उसके नाम से भी लोग घृणा करते हैं। अर्थात अपराधी अपराधी ही होता है। राजनीतिक स्वार्थवश अपराधी का नाम सबसे ऊंचे स्थान पर, स्वर्ण अक्षरों में लिख दिया जाए तो भी वह समाज का कभी भी आदर्श नहीं हो सकता। यही हमारे लोकतंत्र की ताकत है। लोकतंत्र कोई खेल तमाशा नहीं।

यह दीगर बात है कि वह आज भी जहां-तहां परिपक्व स्थिति में नहीं है। इसका नतीजा यह है की दागदार चरित्र वाले लोग भी अपने छल-बल से लोगों के विवेक का हरण कर चुनाव जैसी पवित्र संस्था को भी धूमिल करने में लगे हुए हैं। जनप्रतिनिधि बन जाते हैं। क्या इससे लोकतांत्रिक मूल्यों का चीर हरण होता साबित नहीं होता? प्रतिवाद में कही गई इन बातों का टहलान में शामिल दूसरे अन्य साथियों ने पुरजोर समर्थन किया। सबकी एक ही राय थी कि हमें अपने वोट की कीमत पहचाननी चाहिए, क्योंकि ये आज़ादी, ये लोकतंत्र हमने बहुत कुछ खोकर पाया है।

इन्हीं गहरे अर्थों में मशहूर गीतकार प्रदीप ने लिखा था-

हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के,
इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के।

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Jagdish Lal

Jagdish Lal

About Author

हिंदी पत्रकारिता से करीब चार दशकों तक सक्रिय जुड़ाव. संप्रति: लेखन, पठन-पाठन.

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