हिंदी साहित्य जगत में प्रोफेसर परमानंद श्रीवास्तव का नाम एक ऐसे मनीषी के रूप में स्थापित है, जिन्होंने सृजन और मूल्यांकन, दोनों ही क्षेत्रों में अपनी अमिट छाप छोड़ी। यद्यपि उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा कविता से आरंभ की, किंतु उन्हें शीर्षस्थ सम्मान एक प्रगतिशील और दूरदर्शी आलोचक के रूप में प्राप्त हुआ।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
जन्म और आरंभिक जीवन
परमानंद श्रीवास्तव का जन्म 10 फरवरी 1935 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के बाँसगाँव नामक स्थान पर हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उनके पैतृक गाँव में ही पूरी हुई, जिसने उनके व्यक्तित्व और साहित्यिक संवेदनाओं की नींव रखी।
उच्च शिक्षा
अपनी आरंभिक शिक्षा के बाद, उन्होंने उच्च अध्ययन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल कीं। उनकी शैक्षणिक योग्यता का विवरण इस प्रकार है:
- एम.ए. (हिंदी): आगरा विश्वविद्यालय से वर्ष 1956 में।
- पीएच.डी.: “हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया” विषय पर गोरखपुर विश्वविद्यालय से वर्ष 1963 में।
- डी.लिट्.: “खड़ी बोली काव्यभाषा का विकास” विषय पर गोरखपुर विश्वविद्यालय से वर्ष 1975 में।
इन उच्च शैक्षणिक योग्यताओं ने उनके अकादमिक और संपादकीय जीवन की उस यात्रा की नींव रखी, जिसने हिंदी साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला।
अकादमिक और संपादकीय यात्रा
अध्यापन करियर
प्रोफेसर श्रीवास्तव ने अपने करियर की शुरुआत सेंट एंड्रयूज कॉलेज, गोरखपुर में हिंदी विभाग के अध्यक्ष के रूप में की, जहाँ उन्होंने 1956 से 1969 तक अध्यापन कार्य किया। बाद में, वे गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शामिल हो गए और आचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। अकादमिक जगत में उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान प्रेमचंद पीठ (1989-1995) के प्रोफेसर के रूप में रहा, जहाँ उन्होंने प्रेमचंद के साहित्यिक अवदान पर शोध और विमर्श को नई दिशा दी।
एक संपादक के रूप में भूमिका
अध्यापन के अलावा, प्रोफेसर परमानंद श्रीवास्तव ने एक कुशल संपादक के रूप में भी अपनी पहचान बनाई। उन्होंने प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह के साथ मिलकर साहित्यिक पत्रिका ‘आलोचना’ के सह-संपादक के रूप में कार्य किया। इसके अतिरिक्त, उन्होंने प्रेमचंद साहित्य संस्थान से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘साखी’ का भी संपादन किया। इन पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने समकालीन साहित्यिक बहसों को एक नया मंच प्रदान किया।
साहित्यिक योगदान: कवि से आलोचक तक
साहित्यिक यात्रा का विकास
प्रोफेसर परमानंद श्रीवास्तव ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत कविता और कहानी लेखन से की, लेकिन उन्हें व्यापक ख्याति एक आलोचक के रूप में मिली। समय के साथ, उनका आलोचनात्मक लेखन इतना प्रभावशाली हो गया कि उन्हें हिंदी के शीर्ष और श्रेष्ठतम आलोचकों में गिना जाने लगा।
आलोचनात्मक दृष्टि के प्रमुख पहलू
- प्रगतिशील आलोचक: वे बुनियादी तौर पर एक प्रगतिशील आलोचक थे, जो साहित्य को सामाजिक चेतना के आईने में देखते थे।
- वैचारिक आधार: उनका लेखन मानवतावाद, सूफीवाद, गांधीवाद और मार्क्सवाद जैसी प्रगतिशील विचारधाराओं से प्रेरित था। वह भारतीय संस्कृति और परंपरा में ढले हुए रचनाकार पीढ़ी के प्रतिनिधि थे।
- सांस्कृतिक सक्रियता: उन्होंने अपने लेखन और जीवन में आजीवन साम्प्रदायिकता का पुरजोर विरोध किया और अपने चारों ओर प्रगतिशील चेतना तथा संस्कृति की मशाल जलाए रखी।
साहित्य में विशिष्ट योगदान
हिंदी साहित्य में उनके दो विशिष्ट योगदान:
- स्त्री विमर्श की शुरुआत: उन्होंने महिला लेखिकाओं के उपन्यासों और आत्मकथाओं पर विस्तार से लिखा। उनके इस कार्य को हिंदी साहित्य में ‘स्त्री विमर्श’ की एक महत्वपूर्ण शुरुआत के रूप में देखा जाता है।
- युवा लेखकों को प्रोत्साहन: वे नए और युवा लेखकों के लिए एक प्रेरणास्रोत थे। उन्होंने अनेक नवोदित रचनाकारों को प्रोत्साहित किया और उन्हें साहित्यिक जगत में स्थापित होने में मदद की।
प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ
प्रोफेसर परमानंद श्रीवास्तव ने कविता, आलोचना, कहानी, डायरी और निबंध जैसी विभिन्न विधाओं में लेखन किया।
| विधा | कृति का नाम | प्रकाशन वर्ष |
|---|---|---|
| कविता-संग्रह | उजली हँसी के छोर पर | 1960 |
| अगली शताब्दी के बारे में | 1981 | |
| चौथा शब्द | 1993 | |
| एक अनायक का वृत्तांत | 2004 | |
| आलोचना | नयी कविता का परिप्रेक्ष्य | 1965 |
| हिन्दी कहानी की रचना प्रक्रिया | 1965 | |
| कवि कर्म और काव्य भाषा | 1975 | |
| उपन्यास का यथार्थ और रचनात्मक भाषा | 1976 | |
| जैनेन्द्र के उपन्यास | 1976 | |
| समकालीन कविता का व्याकरण | 1980 | |
| समकालीन कविता का यथार्थ | 1980 | |
| जायसी | 1981 | |
| निराला | 1985 | |
| शब्द और मनुष्य | 1988 | |
| कविता का पाठ और काव्यमर्म | 1992 | |
| उपन्यास का पुनर्जन्म | 1995 | |
| आलोचना (जारी) | कविता का अर्थात् | 1999 |
| आलोचना (जारी) | कविता का उत्तरजीवन | 2004 |
| कहानी-संग्रह | रुका हुआ समय | 2005 |
| डायरी | एक विस्थापित की डायरी | 2005 |
| निबंध | अँधेरे कुंएँ से आवाज़ | 2005 |
सम्मान एवं पुरस्कार
साहित्य के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया। प्रमुख पुरस्कारों में शामिल हैं:
- व्यास सम्मान (के. के. बिड़ला फाउंडेशन): 2006
- भारत भारती सम्मान (उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान): 2006
- रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार: उनकी आलोचना पुस्तक ‘समकालीन कविता का यथार्थ’ के लिए।
अंतिम समय और साहित्यिक विरासत
लम्बी बीमारी के बाद 5 नवम्बर 2013 को गोरखपुर में परमानंद श्रीवास्तव का निधन हो गया। उनके निधन से हिंदी साहित्य ने एक महत्वपूर्ण स्तंभ खो दिया।
आज परमानंद श्रीवास्तव को एक शीर्ष प्रगतिशील आलोचक, युवा प्रतिभाओं के संरक्षक, और हिंदी में ‘स्त्री विमर्श’ को वैचारिक आधार प्रदान करने वाले एक महत्वपूर्ण स्तंभ के रूप में स्मरण किया जाता है। उनकी कृतियाँ और आलोचनात्मक दृष्टि हिंदी साहित्य के शोधार्थियों और पाठकों के लिए एक स्थायी प्रेरणास्रोत बनी हुई है।


