गोरखपुर: पारिवारिक विवाद और आपसी कहासुनी हर घर की कहानी है। रिश्तों में थोड़ी-बहुत नोकझोंक आम बात है, लेकिन कभी-कभी यही छोटी-छोटी बातें इतना ज़हरीला रूप ले लेती हैं कि उनका अंजाम बेहद भयानक होता है। गोरखपुर की यह सच्ची घटना इसी का एक दिल दहला देने वाला उदाहरण है। यहाँ एक 18 साल की पोती ने अपनी 55 वर्षीय दादी की बेरहमी से हत्या कर दी। यह कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर एक दादी और पोती के रिश्ते में इतनी कड़वाहट कैसे पैदा हो गई कि बात खून-खराबे तक पहुँच गई?
कातिल कोई बाहरी नहीं, घर की ही 18 साल की पोती थी
किसी भी हत्या के बाद पहला शक अक्सर किसी बाहरी दुश्मन पर जाता है। गोरखपुर के पीपीगंज इलाके के भुईधरपुर गांव में, जब 55 वर्षीय कलावती देवी का शव उनके घर से 500 मीटर दूर एक बोरे में मिला, तो शायद किसी ने नहीं सोचा होगा कि कातिल उनके ही घर में मौजूद है। पुलिस की जांच ने जब इस राज़ से पर्दा उठाया तो सब हैरान रह गए: कलावती की हत्या किसी और ने नहीं, बल्कि उनकी अपनी 18 वर्षीय पोती, खुशी ने की थी। यह तथ्य कहानी को इसलिए भयावह बनाता है क्योंकि यह सुरक्षा के सबसे बुनियादी नियम को तोड़ता है—कि घर एक सुरक्षित स्थान है। जब रक्षक ही भक्षक बन जाए, तो यह केवल एक शारीरिक हत्या नहीं, बल्कि भरोसे और अपनेपन की भी हत्या होती है।
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हत्या की वजह: जायदाद नहीं, सालों से दिए जा रहे ताने थे
इस जघन्य अपराध के पीछे की वजह पैसा या ज़मीन नहीं, बल्कि सालों से जमा हो रहा मनोवैज्ञानिक ज़हर था। हत्या का मकसद मानसिक उत्पीड़न था, जो खुशी अपनी दादी के हाथों झेल रही थी। पुलिस के अनुसार, इसके तीन प्रमुख कारण थे:
‘बंगालिन’ का ताना: यह सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि पहचान पर हमला था। खुशी की माँ, उतरा देवी की पहली शादी पश्चिम बंगाल में हुई थी और खुशी वहीं के निवासी शंकर घोष की संतान है। दादी कलावती इसी बात को हथियार बनाकर खुशी को लगातार ‘बंगालिन’ कहती थीं। यह ताना खुशी को यह महसूस कराने का एक क्रूर तरीका था कि वह परिवार का हिस्सा नहीं, बल्कि एक बाहरी है। पहचान का यह संकट किसी भी युवा के मन में गहरे घाव छोड़ सकता है।
नौकरों जैसा व्यवहार: दादी अपनी ही पोती के साथ घर में नौकरों जैसा बर्ताव करती थीं, जो उसके आत्म-सम्मान को लगातार ठेस पहुँचा रहा था।
पढ़ाई छुड़वाना: कलावती ने खुशी की पढ़ाई नौवीं कक्षा के बाद ही छुड़वा दी थी, जिससे उसके भविष्य के रास्ते बंद कर दिए गए थे।
ये सिर्फ़ शिकायतें नहीं थीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक उत्पीड़न के हथियार थे। लगातार दिए जाने वाले ताने और अपमान एक युवा मन में धीरे-धीरे इतना आक्रोश भरते रहे कि अंत में उसने एक हिंसक विस्फोट का रूप ले लिया।
हत्या के बाद बेटी की मददगार बनी मां
इस कहानी का सबसे परेशान करने वाला पहलू मां, उतरा देवी की भूमिका है। जब उतरा बैंक से घर लौटीं, तो उन्होंने अपनी बेटी को रोकने या पुलिस को सूचित करने के बजाय उसका साथ दिया। एक मां का अपनी बेटी के अपराध में भागीदार बनना, कानून से पहले मातृत्व के आदिम आवेग को रखने का एक भयावह उदाहरण है। यहां सवाल उठता है: क्या उतरा सिर्फ अपनी बेटी को बचा रही थी, या वह खुद भी अपनी सास के प्रति उसी दबे हुए आक्रोश को साझा करती थी, जिसने इस अपराध को मौन सहमति दे दी? उन्होंने मिलकर शव को बोरे में भरा और उसे ठिकाने लगाने की साजिश रची, जो इस अपराध को और भी जटिल बना देता है।
गड़ासे से चार वार कर सिर धड़ से अलग किया
यह हत्या अचानक आए गुस्से का नतीजा नहीं थी। खुशी अपनी दादी के छप्पर में गई, जो घर से करीब 100 मीटर दूर था, और वहाँ उसने गड़ासे से अपनी दादी के गले पर एक के बाद एक चार वार किए। सिर को धड़ से अलग कर देना सिर्फ मारने की क्रिया नहीं, बल्कि सालों की नफ़रत और अपमान का प्रतिशोध है। हर वार उन अनगिनत तानों और जिल्लत का भौतिक रूप था जो उसने सहे थे। इतनी क्रूर तरीके से हत्या यह साफ साफ बताती है कि खुशी के मन में दबा हुआ आक्रोश कितना गहरा था, जो शब्दों के ज़हर से शुरू होकर गड़ासे के वार पर खत्म हुआ।
बोरे को जलाया, साइकिल से फेंका शव
अपराध करने के बाद मां-बेटी ने सबूत मिटाने की पूरी कोशिश की। उन्होंने शव को एक बोरे में बंद किया, उसे साइकिल पर लादा और घर से कुछ दूरी पर फेंक दिया। पहचान छिपाने के लिए बोरे को जलाने की भी कोशिश की। सबूत मिटाने का यह अनाड़ी प्रयास—साइकिल का उपयोग, बोरे को जलाने की अधूरी कोशिश—एक पेशेवर अपराधी की मानसिकता को नहीं, बल्कि हताशा और घबराहट में किए गए एक जुनूनी अपराध को दर्शाता है। यह इस बात को और पुख्ता करता है कि हत्या की जड़ें भावनात्मक थीं, न कि कोई सोची-समझी साजिश।
…धीरे धीरे रिश्तों में घुलता गया ज़हर
गोरखपुर के पीपीगंज में घटित हुआ यह हत्याकांड सिर्फ एक अपराध कथा नहीं, बल्कि एक पारिवारिक त्रासदी की कहानी है। इसमें कातिल कोई बाहरी नहीं, बल्कि सालों के अपमान से टूटी एक पोती थी, जिसकी मां ने न्याय का साथ देने के बजाय अपनी बेटी के गुनाह पर पर्दा डाला। यह एक ऐसी क्रूरता की कहानी है जो शब्दों के ज़हर से शुरू होकर गड़ासे के वार पर खत्म हुई।
यह घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर अपमान और ताने की आखिरी परिणति क्या हो सकती है? और एक परिवार अपने ही भीतर पनप रहे ऐसे ज़हर को पहचानने में कैसे विफल हो जाता है?