अक्सर हम सुनते हैं कि सतयुग कितना पवित्र था और आज का कलियुग कितना दूषित है। लेकिन, क्या यह सच पूरी तरह से सही है? यदि हम शास्त्रों और इतिहास पर गहराई से नज़र डालें, तो पाएंगे कि हर युग में धर्म और अधर्म साथ-साथ चले हैं। गीता वाटिका, गोरखपुर में संतों के श्रीमुख से निसृत वाणी हमें यही स्मरण कराती है कि समय का कोई भी कालखंड पूर्णतः बुरा या पूर्णतः अच्छा नहीं होता।
आइये, विभिन्न युगों के उदाहरणों से समझें कि कैसे हर काल में अच्छाई और बुराई का संघर्ष विद्यमान रहा है।
1. सतयुग: जहाँ पिता ही बना पुत्र का शत्रु
जिसे हम ‘सत्य का युग’ कहते हैं, उस सतयुग में भी हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष जैसे असुरों का जन्म हुआ। यह वह समय था जब क्रूरता इस हद तक बढ़ गई थी कि एक पिता (हिरण्यकश्यप) अपने ही नन्हे पुत्र (प्रह्लाद) का वध करने पर उतारू हो गया था।
- बेटे का अपराध केवल इतना था कि वह भगवद्भक्ति में लीन था।
- उसे हाथी से कुचलवाने का प्रयास किया गया।
- होलिका के माध्यम से आग में जलाने की साजिश रची गई।
यह सब ‘सतयुग’ में घटित हुआ, जो हमें बताता है कि बुराई उस समय भी अपने चरम पर थी।
2. त्रेता युग: ज्ञान और अहंकार का द्वंद्व
त्रेता युग में रावण जैसा महा-विद्वान हुआ। उसके पास वेदों और वेदांगों का अपार ज्ञान था, लेकिन वह ज्ञान किस काम का जो उसे ईश्वर (श्री राम) के दर्शन ही न करा सका?
रावण ने अपनी विद्वता को अहंकार में बदल दिया। वह एक दुष्ट, नीच और बलात्कारी प्रवृत्ति का प्रतीक बना। यह वही युग था जहाँ सोने की लंका तो थी, लेकिन नैतिकता का पतन भी था।
3. द्वापर युग: रिश्तों का खून
द्वापर युग में कंस जैसा अत्याचारी राजा हुआ। रिश्तों की मर्यादा तार-तार हो गई।
- कंस अपनी ही बहन के बच्चों का हत्यारा बना।
- सत्ता के लोभ में उसने अपने ही पिता (उग्रसेन) को कारागार में डाल दिया।
यह प्रमाण है कि हर युग में धर्म और अधर्म का संघर्ष पारिवारिक स्तर तक भी फैला हुआ था।
4. कलियुग: भक्ति और संतों का प्रकाश पुंज
अब बात करते हैं उस युग की जिसे हम सबसे बुरा मानते हैं—कलियुग। लेकिन, इसी कलियुग के अंधकार में ज्ञान और भक्ति के सबसे बड़े सूर्य भी उदित हुए।
जरा सोचिये, इसी कलियुग में हमें निम्न महान आत्माओं का सान्निध्य मिला:
- आदिशंकर: जिन्होंने अद्वैत वेदांत की स्थापना की।
- समर्थ गुरु रामदास: जिन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज का मार्गदर्शन किया।
- संत शिरोमणि: कबीरदास, बाबा तुलसीदास, गुरु नानक देव जी।
- भक्ति के आचार्य: रामानुज, वल्लभ, मध्व, निम्बार्क और कुमारिल भट्ट।
इन महात्माओं ने सिद्ध किया कि कलियुग में भी धर्म जीवित है और पूरी प्रखरता के साथ बह रहा है।
धर्म ही रक्षा है
गीता वाटिका के प्रवचन का सार यही है कि अच्छे और बुरे लोग हर युग में हुए हैं और आगे भी होंगे। युग बदलने से मनुष्य की वृत्ति नहीं बदलती, बल्कि हमारे कर्म और संस्कार ही हमें देव या दानव बनाते हैं।
हमें बस इतना याद रखना है— “धर्मो रक्षति रक्षितः”।
श्रद्धा और विश्वास रखें। यदि हम धर्म (सदाचार, परोपकार और सत्य) की रक्षा में तत्पर रहेंगे, तो धर्म निश्चित रूप से हमारी रक्षा करेगा। यही हमारे और आपके वास्तविक विकास का मार्ग है।
नोट: यह आलेख गीता वाटिका, गोरखपुर में एक कथावाचक द्वारा दिए गए प्रवचन के अंशों पर आधारित है। इसका उद्देश्य समाज में सकारात्मकता और धर्म के प्रति आस्था को सुदृढ़ करना है।


