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पुतवो मीठ, भतरो मीठ…
प्रोफेसर अपने प्रवाह में बोल गए. उनके मुंह से भोजपुरी! यह थोड़ी चौंकाने वाली बात लगी.
बोल गए तो बोल गए. प्रोफेसर थे एक विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष. अब सेवानिवृत्ति हैं. अपनी भाषा की जमीन पर लौट चुके हैं. आशियाना भी अपने गांव में बना रखा है. इसलिए समझा जा सकता है कि भोजपुरी भाषा से उनकी यह आत्मीयता क्यों है. बड़ी बात यह नहीं है कि भोजपुरी से उनकी आत्मीयता क्यों है. बड़ी बात यह है कि खड़ी बोली हिंदी को उन्होंने जान बूझकर छोड़ दिया है. कुरेदने पर एक पारिवारिक प्रसंग में उन्होंने इस मुहावरे को दोहराया.
पुतरो मीठ, भतरो मीठ
केकर किरिया खाईं.
उनका कहना है कि देहाती समाज में “किरिया” खाने का एक गहरा सामाजिक संदर्भ रहा है. लोगों का मानना था कि अगर कोई व्यक्ति झूठ बोलकर अपने बेटे या पति का किरिया खा लेता है, तो उसका अनिष्ट होना निश्चित है. इस मुहावरे का सामाजिक संदर्भ यह है कि परिवार की जिम्मेदारियों में डूबी किसी महिला के लिए झूठ बोल पाना, इस तरह का किरिया खाना एक बड़ी चुनौती है. क्योंकि वह किसी भी हाल में अपना अनिष्ट नहीं चाह सकती. वह जीवन भर अपने पति और बेटे दोनों का सुख चाहती है. ग्रामीण समाज की संरचना को गौर से देखें तो इस तरह की युक्ति का एक गहरा निहितार्थ है.
झूठ बोलने से बचना यानी एक कठिन जीवन जीने की प्रतिबद्धता, अपने आप को एक कठिन दौर से गुज़ारने के समान है. हालांकि झूठ बोलने से कुछ समय के लिए लाभ मिल सकता है, लेकिन अपने, अपने परिवार और समाज के हित में इससे बचना एक महत्वपूर्ण आवश्यकता और प्रतिज्ञा है. सारांश यह कि पुतरो, भतरो वाली उक्ति ग्रामीण जीवन की उस समझ का प्रतिनिधित्व करती है जो अनिष्ट से डरती है, झूठ से बचती है.