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दुखद अंत: सरधना की फ़िज़ाओं में तैरती रहेगी शाइस्ता और शादाब की ये प्रेम कहानी

प्रेम कहानी
मेरठ के करीब सरधना में एक छोटी सी लव स्टोरी का इतना दुखद अंत हुआ कि सबकी आंखें नम रह गईं…दोनों की उम्र कम थी…एक दूसरे को दिल से चाहते थे…एक ही धर्म के मानने वाले…लेकिन जा​ति अलग थी. भला प्रेम जाति और धर्म के बंधनों को कहां मानता है?…और वह शरीर के बंधनों को भी कहां मानता है…दोनों ने तय किया कि हम साथ जी नहीं सकते तो साथ मरने से भला कौन रोक सकता है…रख लो तुम अपनी धर्म और जाति की दीवारें अपने पास, इस दुनिया के दस्तूर अपने पास…पढ़िये दिल को झकझोर देने वाली यह कहानी —

मेरठ: सरधना की गलियों में कच्ची उम्र के पाकीज़ा प्रेम की दास्तान दफ़न हो गई. अंत ऐसा कि जिसने भी सुना उसका दिल मोम की तरह पिघल गया. बाली उम्र यह प्रेम कहानी दुनिया की बंदिशों के आगे ऐसी टूटी कि फिर पीछे छूट गईं नम आंखें और अफ़सोस…दोनों ने मोबाइल कैमरे पर आमने-सामने खामोशी से मौत को गले लगा लिया.

मेरठ से कोई पचीस कोस दूर, सरधना कस्बा है. वहां शादाब के घर के बाहर मातम का साया है. टेंट लगा है, और औरतें बस सिसकियां भर रही हैं. हर आंख बस एक ही सवाल कर रही है — “क्यों? आखिर क्यों ये सब हुआ?” गांव की हर गली, हर नुक्कड़ पर बस इसी कहानी के टुकड़े बिखरे पड़े हैं, और हर कोई उन्हें जोड़कर उस अधूरी तस्वीर को पूरा करने की कोशिश कर रहा है.

कहते हैं ना, प्यार की शुरुआत कभी-कभी अनजाने में, एक छोटी सी ‘ना’ से होती है. नौवीं में पढ़ने वाली वो शाइस्ता (काल्पनिक नाम), जो रोज़ स्कूल जाती थी, उसके कदम हर सुबह एक ही रास्ते से गुज़रते थे. शादाब की दुकान के सामने से, जहां वो अपने काम में लगा रहता था. शादाब, जो वहीं काम करता था, उसकी नज़रें अक्सर शाइस्ता पर ठहर जाती थीं. वो अक्सर उससे बात करने की कोशिश करता, एक मुस्कान देता, पर वो हमेशा इनकार कर देती, अपनी नज़रें झुकाकर आगे बढ़ जाती. शादाब ने कभी शाइस्ता को परेशान नहीं किया, कभी उसकी राह नहीं रोकी, बस एक उम्मीद भरी निगाह से उसे जाते देखता रहता.

दो महीने गुज़रे, और वो ‘ना’ कब मीठी ‘हां’ में बदल गई, पता ही न चला! शायद शादाब की खामोश चाहत ने शाइस्ता के दिल में भी जगह बना ली थी. शाइस्ता की सहेलियां बताती हैं, डेढ़ साल तक उनका रिश्ता ऐसे ही परवान चढ़ा. स्कूल आते-जाते, चोरी-छिपे, उनकी आंखें मिलतीं, फिर धीरे-धीरे बातें होने लगीं. पहले ये बातें स्कूल के रास्ते तक सीमित थीं, फिर मोबाइल और वॉट्सऐप पर उनकी दुनिया बसने लगी. शादाब सत्रह का था, और शाइस्ता महज़ पंद्रह की! इतनी कच्ची उम्र में ही उन्होंने साथ जीने-मरने के सपने बुन लिए थे. उनके लिए दुनिया बस एक-दूसरे में सिमट गई थी, और उन्हें लगा कि उनका प्यार ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है.

जब उनके प्यार पर दुनिया की ज़ालिम नज़रें पड़ीं

उन्हें लगा, उनका प्यार तो सच्चा है, पाक है, घरवाले मान ही जाएंगे! उन्होंने हिम्मत करके अपने घरवालों से बात की, अपने रिश्ते के बारे में बताया. पर यहीं कहानी में एक ऐसा मोड़ आया ना, जिसने सब कुछ तबाह कर दिया. उन दोनों के परिवार मुस्लिम थे, पर उनकी बिरादरी अलग थी. ये एक ऐसी दीवार थी, जिसे उनका मासूम प्यार पार नहीं कर सका. घरवालों ने सीधे मना कर दिया. उनके लिए ये रिश्ता समाज की रीतियों के खिलाफ था. शादाब, जो रोज़ शाइस्ता को स्कूल से घर तक छोड़ने जाता था, एक दिन परिवार की नज़रों में आ गया. घर में तो जैसे भूचाल आ गया. चीख-पुकार मच गई, और शाइस्ता का घर से निकलना भी बंद कर दिया गया. स्कूल जाना भी मुश्किल हो गया, जैसे उसकी दुनिया एक कमरे में सिमट गई हो.

पिछले छह महीनों से शादाब के सोशल मीडिया पर बस उदास पोस्ट ही दिखते थे. वो अपनी शाइस्ता से मिलने, उसे पाने की चाहत में स्टेटस लगाता था. कभी शायरी लिखता, कभी कोई दर्द भरा गाना शेयर करता. उसके दिल का दर्द हर लफ़्ज़ में साफ झलकता था. वो तड़प रहा था, और उसकी तड़प उसकी हर पोस्ट में दिखती थी. ये पोस्ट सिर्फ़ उसकी दीवानगी नहीं, बल्कि उसकी बेबसी की दास्तान भी कहते थे. पुलिस भी अब इन पोस्ट की जांच कर रही है, शायद इनमें उस दर्दनाक फैसले की कोई आहट छिपी हो.

एक दर्दनाक रात का भयानक अंत

और फिर आई इस 10 जुलाई की काली रात… रात के करीब 8:30 बजे, दोनों फोन पर बात कर रहे थे. उनकी आवाज़ में शायद बेबसी थी, आंखों में आंसू और दिल में एक अजीब-सा खालीपन. शादी का सपना तो टूट ही गया था, घरवालों की रज़ामंदी कहीं दूर-दूर तक दिख ही नहीं रही थी. हर दरवाज़ा बंद हो चुका था. तब उन्होंने एक-दूसरे से कहा, “यार, जब साथ जी नहीं सकते, तो साथ मर तो सकते हैं!” ये फैसला कितना मुश्किल रहा होगा, ये सोचकर भी रूह कांप जाती है. और फिर, फोन पर एक-दूसरे से बात करते हुए ही, रात 9 बजे के करीब, उन्होंने अपने-अपने घरों में ज़हर खा लिया. शायद उन्हें लगा होगा कि मौत ही उनके प्यार को अमर कर देगी.

उस रात 2 बजे, शाइस्ता ने अस्पताल में दम तोड़ दिया. उसके परिवार ने, शायद बदनामी के डर से, या गहरे सदमे में, बिना किसी को बताए, सुबह ही उसका अंतिम संस्कार कर दिया. गांव में किसी को कानों-कान खबर नहीं हुई. उधर, अस्पताल में शादाब भी सुबह 8 बजे आखिरी सांसें लेते हुए इस दुनिया से चला गया. पर शादाब की मौत की खबर अस्पताल से पुलिस को मिली, और तब जाकर इस दिल दहला देने वाली प्रेम कहानी का सच सामने आया. पुलिस पूछताछ के लिए अस्पताल पहुंची, और धीरे-धीरे पूरा मामला खुलता चला गया. शादाब का पोस्टमॉर्टम हुआ, और शाम को उसका भी जनाज़ा उठ गया.

शुक्रवार की शाम, जब दोनों के घरों से जनाज़े उठे ना, तो पूरे गांव की आंखें नम थीं. हर कोई इस प्रेम कहानी के ऐसे दर्दनाक अंत पर रो रहा था. ये सिर्फ दो जिंदगियों का अंत नहीं था, बल्कि दो मासूम दिलों के सपनों और उम्मीदों का भी अंत था, जो इस समाज की बंदिशों की भेंट चढ़ गए. गांव में एक अजीब-सी खामोशी छा गई थी, जैसे हर कोई इस घटना से स्तब्ध हो. लोग आपस में फुसफुसाते, “काश कुछ और हो सकता!” पर अब कुछ नहीं हो सकता था, सिवाय इस दर्द को महसूस करने के.

क्या सच में प्यार को धर्म और बिरादरी की बेड़ियों में बांधा जा सकता है? क्या ये बंदिशें इतनी बड़ी हैं कि दो जिंदगियों को मौत के मुंह में धकेल दें? ये सवाल आज भी मेरठ की हवा में गूंज रहे हैं, और हर दिल को झकझोर रहे हैं.

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Priya Srivastava

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About Author

Priya Srivastava दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय से पॉलिटिकल साइंस में परास्नातक हैं. गोगोरखपुर.कॉम के लिए इवेंट, एजुकेशन, कल्चर, रिलीजन जैसे टॉपिक कवर करती हैं. 'लिव ऐंड लेट अदर्स लिव' की फिलॉसफी में गहरा यकीन.

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