Lal bahadur shastri death mystery: 1966 की एक ठंडी रात, ताशकंद की बर्फिली हवाओं के बीच भारतीय राजनीति का एक ऐसा अध्याय समाप्त हो गया, जो आज भी एक रहस्य बनकर देश की स्मृतियों में जीवित है। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का आकस्मिक निधन, जिसे आधिकारिक तौर पर हृदय गति रुकना बताया गया, दशकों से एक ऐसी राजनीतिक ‘डेथ मिस्ट्री’ बना हुआ है, जिसके हर पहलू पर संदेह की धुंध छाई हुई है।
1977 में, जब सत्ता परिवर्तन हुआ और जनता पार्टी ने केंद्र में सरकार बनाई, तो शास्त्री जी की रहस्यमय हालात में मौत की परतें खुलने की एक उम्मीद जगी। इस दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम था रामनारायण कमेटी का गठन। इस कमेटी को शास्त्री जी की मृत्यु की परिस्थितियों की गहन जांच करने का जिम्मा सौंपा गया था।
जांच के दौरान, कमेटी ने दो ऐसे व्यक्तियों को गवाही के लिए बुलाया जो शास्त्री जी के अंतिम दिनों के महत्वपूर्ण साक्षी थे। इनमें पहले थे डॉ. आरएन चुघ, जो प्रधानमंत्री के निजी चिकित्सक थे और ताशकंद में उनके साथ मौजूद थे। वे उस दुखद रात शास्त्री जी के अंतिम क्षणों के गवाह थे। दूसरे महत्वपूर्ण व्यक्ति थे रामनाथ, जो शास्त्री जी के निजी बावर्ची थे और पूरे ताशकंद प्रवास के दौरान उनके लिए भोजन तैयार करते थे। लेकिन, एक ऐसा तथ्य सामने आया जिसने इस रहस्य को और गहरा दिया।
शास्त्री जी की मृत्यु वाले दिन, सोवियत संघ में भारत के तत्कालीन राजदूत टीएन कौल ने रामनाथ की जगह अपने निजी बावर्ची, जान मोहम्मद से शास्त्री जी का भोजन बनवाया था। टीएन कौल का नेहरू परिवार से गहरा और पुराना संबंध इस घटनाक्रम को एक पेचीदा मोड़ देता है। यह उल्लेखनीय है कि 1959 में जब लाल बहादुर शास्त्री ने इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का विरोध किया था, तब भी नेहरू ने अपने करीबी टीएन कौल को ही इंदिरा गांधी का सलाहकार नियुक्त किया था।
लेकिन इस कहानी में त्रासदी यहीं समाप्त नहीं होती। रामनारायण कमेटी के समक्ष गवाही देने के लिए दिल्ली आ रहे डॉ. आरएन चुघ एक भयानक सड़क दुर्घटना का शिकार हो गए। उनकी कार एक ट्रक से टकरा गई, जिसमें डॉ. चुघ, उनकी पत्नी और बेटी सभी की जान चली गई। यह घटना जांच प्रक्रिया के लिए एक गंभीर झटका थी। इसके बाद, दूसरे महत्वपूर्ण गवाह रामनाथ भी दिल्ली आते समय एक तेज रफ्तार कार की चपेट में आ गए। इस दुर्घटना में उनकी तत्काल मृत्यु तो नहीं हुई, लेकिन उनकी दोनों टांगें बुरी तरह कुचल गईं और सिर में गंभीर चोट लगने के कारण उनकी याददाश्त चली गई। कुछ समय बाद, उनकी भी मृत्यु हो गई। ललिता शास्त्री जी के एक बयान के अनुसार, रामनाथ कमेटी के सामने पेश होने से पहले उनसे मिले थे और उन्होंने कहा था, “बहुत दिन का बोझ था अम्मा, आज सब बता देंगे।”
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इन दो महत्वपूर्ण गवाहों की रहस्यमय और हिंसक मौतें क्या मात्र एक दुर्भाग्यपूर्ण संयोग थीं? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है, एक गहरा रहस्य बनकर जो दशकों से भारतीय राजनीति को झकझोर रहा है। क्या लाल बहादुर शास्त्री की हत्या के राज़ को हमेशा के लिए दफनाने के लिए दो और जिंदगियां ली गईं?
शायद इस जटिल पहेली का पूर्ण समाधान कभी नहीं मिल पाएगा। लेकिन हर वर्ष, लाल बहादुर शास्त्री की जयंती और पुण्यतिथि पर, यह अनसुलझा प्रश्न आने वाली पीढ़ियों को याद दिलाता रहेगा कि एक ऐसे महान नेता की मृत्यु के पीछे की सच्चाई आज भी अंधेरे में डूबी हुई है, और न्याय की प्रतीक्षा अधूरी है।
यह एक विडंबना ही है कि जिस शख्सियत ने अपने संक्षिप्त कार्यकाल में “जय जवान जय किसान” का नारा देकर देश को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बनाया, जिसने 1965 के भारत-पाक युद्ध में अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और कुशल नेतृत्व से भारत को विजय दिलाई, उसी व्यक्ति की मृत्यु को दशकों तक एक साधारण हृदयघात बताकर प्रचारित किया गया। क्या ताशकंद समझौते का दबाव इतना असहनीय था कि एक मजबूत इरादों वाला प्रधानमंत्री अचानक चल बसा? या इस कहानी के पीछे कोई और गहरी सच्चाई छिपी है, जिसे दो महत्वपूर्ण गवाहों की रहस्यमय मौतों ने और भी जटिल बना दिया है?
ताशकंद की राह: शांति की तलाश
लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद यात्रा का मुख्य उद्देश्य 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध को समाप्त करने के लिए एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर करना था। सोवियत संघ ने इस युद्ध को समाप्त कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों को वार्ता के लिए ताशकंद आमंत्रित किया। भारत सरकार ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया, और शास्त्री जी पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के साथ बातचीत करने के लिए ताशकंद गए। इस महत्वपूर्ण शिखर बैठक में सोवियत संघ ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई, जिसका परिणाम ताशकंद समझौते के रूप में सामने आया। 1965 के युद्ध के दौरान, गुलजारीलाल नंदा ने भारत के गृह मंत्री और के. कामराज ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया।
राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का साया?
इंदिरा गांधी, जो 1966 में शास्त्री जी के निधन के समय सूचना और प्रसारण मंत्री थीं, उनके राजनीतिक उदय को लेकर कई तरह की अटकलें लगाई जाती रही हैं। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि प्रधानमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा शास्त्री जी की मृत्यु के बाद साकार हुई। 1965 के युद्ध में भारत की जीत के बाद शास्त्री जी की लोकप्रियता और कद काफी बढ़ गया था। उनकी अप्रत्याशित मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी सर्वसम्मति से कांग्रेस संसदीय दल की नेता चुनी गईं और प्रधानमंत्री बनीं। विपक्षी दलों ने उस समय शास्त्री जी की मौत के पीछे कई तरह के ‘रहस्य’ गिनाए थे, जिसमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी एक संभावित कारण के तौर पर चर्चा में रही, हालांकि इसके कोई ठोस प्रमाण कभी सामने नहीं आए। कांग्रेस पार्टी ने भी इस मामले की गहन जांच की आवश्यकता महसूस नहीं की।
टीएन कौल: एक रहस्यमय कड़ी
टीएन कौल, एक प्रतिष्ठित राजनयिक जिन्होंने सोवियत संघ, संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन जैसे महत्वपूर्ण देशों में भारत के राजदूत के रूप में कार्य किया, शास्त्री जी की मृत्यु के आसपास के रहस्य में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बने हुए हैं। उनका नेहरू परिवार से गहरा और पुराना संबंध था। ताशकंद समझौते के दौरान सोवियत संघ में भारतीय राजदूत के रूप में उनकी उपस्थिति और शास्त्री जी के भोजन की व्यवस्था में उनकी भूमिका, खासकर अंतिम दिन रामनाथ की जगह अपने बावर्ची को नियुक्त करना, संदेहों को जन्म देता है।
विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया: शोक और संदेह
शास्त्री जी की मृत्यु पर पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई थी, और विपक्षी दलों ने भी अपनी गहरी संवेदनाएं व्यक्त की थीं। भारतीय जनसंघ, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और साम्यवादी दलों जैसे प्रमुख विपक्षी दलों ने शास्त्री जी के योगदान को याद करते हुए दुख व्यक्त किया। हालांकि, ताशकंद समझौते के तुरंत बाद हुई उनकी मृत्यु और सरकार द्वारा दी गई अस्पष्ट जानकारी के कारण, कुछ नेताओं और दलों ने संदेह जताया और विस्तृत जांच की मांग की। जनसंघ के कुछ नेताओं ने विशेष रूप से मृत्यु की परिस्थितियों पर सवाल उठाए थे।
जांच के अधूरे प्रयास
लाल बहादुर शास्त्री जी की मौत की जांच के लिए मुख्य रूप से दो कमेटियां गठित की गईं। पहली थी 1977 में बनी रामनारायण कमेटी, जिसका उद्देश्य सच्चाई का पता लगाना था। रामनारायण, जो एक समाजवादी नेता थे, इसके अध्यक्ष थे। दूसरी एक संसदीय समिति थी, जिसका गठन मृत्यु के तुरंत बाद हुआ था, लेकिन इसकी कार्यवाही और निष्कर्षों के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। रामनारायण कमेटी भी अपने दो महत्वपूर्ण गवाहों की रहस्यमय मौतों के कारण अपनी जांच पूरी नहीं कर सकी, जिससे यह रहस्य और गहरा गया।
नेहरू और शास्त्री: एक अनकही कहानी
इंदिरा गांधी को 1959 में कांग्रेस का अध्यक्ष चुना जाना, उस समय के राजनीतिक परिदृश्य का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। जवाहरलाल नेहरू का राजनीतिक कद इतना बड़ा था कि उनका समर्थन इंदिरा गांधी के लिए निर्णायक साबित हुआ। हालांकि, ऐसा माना जाता है कि लाल बहादुर शास्त्री ने इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का विरोध किया था, और इस मुद्दे पर नेहरू और शास्त्री के बीच मतभेद थे। शास्त्री जी जैसे अनुभवी नेता की आपत्तियों के बावजूद इंदिरा गांधी का अध्यक्ष बनना और फिर नेहरू द्वारा टीएन कौल को उनका सलाहकार नियुक्त करना, उस समय के राजनीतिक समीकरणों और नेहरू परिवार के प्रभाव को दर्शाता है।
लाल बहादुर शास्त्री की मौत आज भी भारतीय राजनीति के इतिहास में एक अनसुलझी पहेली बनी हुई है। आधिकारिक स्पष्टीकरण के बावजूद, कई सवाल और संदेह अभी भी बरकरार हैं, जो इस ‘डेथ मिस्ट्री’ को आजाद भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक रहस्यों में से एक बनाते हैं।
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