यह कहावत कभी लोक जुबान पर बसती थी. भारतीय समाज में वर्षा गीतों की बहुत ही समृद्ध परंपरा रही है. सावन और भादों के महीने में लोक गायकों की जुबान पर कजरी हुआ करती थी. लोग बाग भी कजरी गाने, सुनने में दिलचस्पी लेते थे. लेकिन वक्त के साथ कजरी भी बीते दिनों की बात हो गई.
यूं तो कजरी के लिए मिर्जापुर प्रसिद्ध था, लेकिन पूर्वांचल के जिलों में भी कजरी गवैये गांव गांव होते थे. बारिश की फुहारों के बीच जब कजरी के सुर गुंजायमान होते थे लोग सारे कामकाज छोड़कर बस कजरी की धुनों पर थिरकते थे. पहले सावन में बेटियों को मायके बुलाने की परंपरा थी. बेटियां सावन में अपने मायके में रहतीं और कजरी उत्सव को आनंद लेती थीं. सावन में झूले पड़ते. कजरी गाने वाले पुरुष और महिलाएं अपने गीतों से लोगों को बांधे रखते थे. कजरी की धुन और झूले की पेंग का साथ दोनों के मिलने से मन प्रफुल्लित हो उठता था. कजरी यूं तो सरनाम थी मिर्जापुर की, लेकिन हर गांव-घर में कजरी अपने अपने तरीके से कजरी का आनंद लेता था.
1963 में आई फिल्म ‘बंदिनी’ का यह गीत लोगों की जुबान पर बहुत दिनों तक कायम रहा. आशा भोसले की आवाज में इस कजरी के गीतकार-संगीतकार शैलेंद्र और एसडी बर्मन थे. इस गीत में सावन, कजरी की कसक महसूस की जा सकती है.
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