बतकही

आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक…

बतकही-गो गोरखपुर

उम्र तो सारी कटी इश्क़-ए-बुतां में “मोमिन”,
आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमान होंगे.

कुछ बुजुर्ग रोज़ टहलने में मिलते हैं. मुलाक़ात का समय मौसम पर निर्भर करता है. गर्मियों में यथासंभव सुबह और शरद ऋतु में थोड़ा देर से. उनसे अक्सर बातें होती रहती हैं. बड़े ज़िंदादिल लोग हैं, लेकिन उनकी चिंताएं भी कम नहीं. ये सभी खाते-पीते घरों से हैं. जवानी के दिनों के करमठ लोग रहे हैं. कहते हैं— उम्र-ए-रफ़्ता कभी लौटती नहीं, जा मयकदे से मेरी जवानी उठा के ला.

परिचय के तौर पर मोटा-मोटा कह सकते हैं कि कुछ लोग शिक्षा जगत से जुड़े रहे हैं – माध्यमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक. इन्हीं में से कुछ भारतीय रेलवे में अपना श्रमदान करते रहे हैं. कुछ लोग समाज की दूसरी धाराओं से जुड़े हुए रहे हैं.

बुजुर्ग हैं, लेकिन साथ में चिंताओं की गठरी भी है. बातचीत के दौरान प्रतीत हुआ कि उनकी चिंताएं तीन हिस्सों में बंटी हुई हैं – पहली सेहत की चिंता, दूसरी परिवार की ज़िम्मेदारियों का बोझ और इन सबसे परे मोक्ष की चिंता. सभी एक ही धर्म के अनुयायी – सनातनी जीवन शैली के हैं.

सिरु कंपिओ पगु डगमगै, नैन ज्योति ते हीन.
कहु नानक इह विधि भई, तऊ न हरि रस लीन.

सेहत विज्ञान का विषय है. सेहत के वास्ते बनाए गए वैज्ञानिक नियमों को कैसे अपनाएं, इससे ये बुजुर्ग गाफ़िल हैं. वे विज्ञान में कम, “ऊपर वाले” पर ज़्यादा भरोसा रखते हैं. देर से बिस्तर छोड़ने और टहलने को हास्य का विषय बनाते हैं, इस पर ठहाके लगाते हैं.

परिवार की चिंता भी उन्हें सताती है. बेटा टॉपर रहा, बेरोज़गार है…बेटा परदेस कमाता है, घर पर मियां-बीवी अकेले रहते हैं… बेटा अफ़सर है, दूसरे शहर में तैनाती है, ज़रूरत पड़ने पर ये किस काम के…परिवार में कोई कमाने वाला नहीं है, घर का ख़र्च कैसे चले…

धार्मिक प्रतीकों, पुस्तकों, आडंबरपूर्ण आचरण में पूर्ण विश्वास रखते हैं. राजनीतिक दलों की नफ़रती भाषा में रुचि रखते हैं. मानवीय मूल्यों से सर्वथा विमुख हैं, फिर भी मोक्ष की अभिलाषा रखते हैं.

जहां दया तहां धर्म है, जहां लोभ वहां पाप,
जाके हिरदै सांच है ताके हिरदै आप.

#बुजुर्ग #चिंताएं #सेहत #परिवार #मोक्ष

जगदीश लाल

About Author

हिंदी पत्रकारिता से करीब चार दशकों तक सक्रिय जुड़ाव. संप्रति: लेखन, पठन-पाठन.

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