“क” और “ख” अपना 70 वसंत पार कर चुके हैं. समय की सीढ़ियों पर चढ़ते जीवन में जो अनुभव इकट्ठे किए उसे साझा कर रहे थे.
“क” का कहना था कि उनके पिता जी पांच भाई थे. सभी कामकाजी थे. सब की तैनाती अलग-अलग जगह पर थी. पिता जी सब में बड़े थे. जब तनख्वाह मिलती, तो एक एक करके सभी भाइयों के पास पहुंचते. तब सबकी पॉकेट में पड़ा पैसा सबका होता था, पर जिम्मेदारी सिर्फ बड़े होने के नाते पिता जी की थी. नतीजतन सबकी जरूरत की खरीदारी वे ही करते. फीस, कॉपी, किताब, दवाई, शादी-ब्याह सब कुछ उनके कंधों पर.
पिताजी के बाद उन्होंने (“क” ने) पहली तनख्वाह अपनी मां के हाथों पर रखी. समझ थी कि मां इन पैसों से घर का खर्च चलाएगी. एक दिन बेटे की तबीयत खराब हुई. झल्लाई मां ने प्रपौत्र की चिकित्सा के लिए पैसे नहीं दिए. “क” बोल रहे थे — मां बड़ी कंजूस थी. तब से वित्तीय प्रबंध अपने हाथों में लेना पड़ा.
चलो! छोटा सा वसूल बनाते हैं. अच्छा याद रखते हैं बुरा भूल जाते हैं.
“क” और “ख” जीवन के बीते दिनों के अनुभव को साझा करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पहले समाज की इकाई व्यक्ति नहीं, परिवार होता था. अब व्यक्ति है. इसी से व्यक्तिवाद पैदा हुआ है. बाजार इस व्यक्तिवाद को रोज मजबूत करने में लगा हुआ है. अब व्यक्ति अपने तक सीमित है, परिवार पीछे छूट गया है —
ज़मीं को रख सकोगे यूं बचाकर,
समुंदर को नदी कर दो घटाकर.
नए युग के निराले गीत गाओ,
पुराने साज अब रख दो उठाकर.
जेनरेशन गैप की असली वजह तकनीकी विकास और बाजारवाद है न कि संस्कार, कला और संस्कृति. ये तो इसे संरक्षित करने की पक्षधर हैं.
पहाड़ों की तरह
खामोश हैं संबंध और रिश्ते
जब तक हम न पुकारें
उधर से आवाज नहीं आती.
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