गाजियाबाद: गाजियाबाद ट्रैफिक पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी को बदनाम करने की सोची-समझी साजिश का पर्दाफाश हुआ है। एक गुमनाम चिट्ठी के जरिए एक सहायक पुलिस आयुक्त (ACP) पर लगाए गए रिश्वतखोरी के गंभीर आरोपों ने विभाग में हलचल मचा दी थी, लेकिन एक सप्ताह चली गहन जांच के बाद पूरा मामला ही पलट गया। जांच में न केवल एसीपी पर लगे आरोप पूरी तरह से झूठे और निराधार साबित हुए, बल्कि यह भी सामने आया कि शिकायतकर्ता ‘रामलाल’ का कोई अस्तित्व ही नहीं है। अब पुलिस की जांच की दिशा भ्रष्टाचार के आरोपों से हटकर उस रहस्यमयी साजिशकर्ता को खोजने पर केंद्रित हो गई है, जिसने एक फर्जी पत्र के जरिए पूरे विभाग को गुमराह करने की कोशिश की।
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सनसनीखेज आरोप: ड्यूटी में गैरहाजिरी पर 5000 रुपये की वसूली का दावा
लखनऊ मुख्यालय और गाजियाबाद पुलिस कमिश्नरेट कार्यालय को ‘रामलाल’ के नाम से भेजे गए इस पत्र में एक सुनियोजित वसूली तंत्र का आरोप लगाया गया था। इसमें दावा किया गया कि यदि कोई ट्रैफिक पुलिसकर्मी अपने निर्धारित ड्यूटी पॉइंट पर अनुपस्थित पाया जाता, तो संबंधित एसीपी उसकी गैरहाजिरी की रिपोर्ट दर्ज कर उसे लाइन हाजिर या सस्पेंड करने की धमकी देता था। पत्र के अनुसार, इस धमकी की आड़ में पुलिसकर्मी से ऑफिस में ही पांच-पांच हजार रुपये की रिश्वत वसूली जाती थी। इन गंभीर आरोपों ने विभाग की साख पर सवाल खड़े कर दिए, जिसके बाद अधिकारियों ने बिना किसी देरी के एक उच्च-स्तरीय जांच के आदेश दिए।
जांच में खुली पोल: 24 कर्मियों के बयान के बाद आरोप साबित नहीं हुए
जब किसी वरिष्ठ अधिकारी पर इस तरह के आरोप लगते हैं, तो एक निष्पक्ष और विस्तृत जांच विभाग की पारदर्शिता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। अतिरिक्त पुलिस आयुक्त (यातायात) आलोक प्रियदर्शी के नेतृत्व में शुरू हुई जांच में ट्रैफिक विभाग में तैनात 24 पुलिसकर्मियों के बयान दर्ज किए गए। एक सप्ताह तक चली इस गहन पूछताछ का निष्कर्ष स्पष्ट था: एसीपी पर लगाए गए सभी आरोप पूरी तरह से झूठे और बेबुनियाद पाए गए। एक भी पुलिसकर्मी ने अपने बयान में रिश्वत मांगने या देने की पुष्टि नहीं की। जांच का सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह था कि गाजियाबाद ट्रैफिक पुलिस विभाग में ‘रामलाल’ नाम का कोई भी अधिकारी या कर्मचारी कार्यरत ही नहीं है। इस खुलासे ने यह स्पष्ट कर दिया कि यह शिकायत किसी साजिश के तहत की गई थी, जिसके बाद मामले की जांच की दिशा पूरी तरह बदल गई है।
विभाग का ‘जयचंद’ कौन? फर्जी शिकायतकर्ता की तलाश में जुटी पुलिस
मामले के इस नए मोड़ के साथ ही पुलिस की प्राथमिकता अब भ्रष्टाचार की जांच से हटकर एक साजिश का पर्दाफाश करने पर आ गई है। जांच रिपोर्ट लखनऊ मुख्यालय को भेजी जा रही है और साथ ही उस व्यक्ति की तलाश तेज कर दी गई है जिसने ‘रामलाल’ बनकर विभाग को गुमराह किया। अधिकारियों का मानना है कि यह फर्जी शिकायत “दुर्भावना या आंतरिक रंजिश” का परिणाम है, जिसका मकसद अधिकारी और विभाग की छवि खराब करना था। इस तरह की आंतरिक रंजिश की जड़ें गाजियाबाद की प्रशासनिक संरचना में गहरी हो सकती हैं। दिल्ली से सटे होने के कारण इसे एक ‘प्राइम पोस्टिंग’ माना जाता है, जहाँ एक डीसीपी और एक एडिशनल डीसीपी के नेतृत्व में लगभग 1100 कर्मियों का विशाल ट्रैफिक अमला—जिसमें तीन एसीपी, 12 इंस्पेक्टर, 120 सब-इंस्पेक्टर और करीब 800 सिपाही शामिल हैं—तैनातियों और प्रभाव के लिए प्रतिस्पर्धा करता है। ऐसी ही प्रतिस्पर्धा अक्सर इस तरह के गुमनाम षड्यंत्रों को जन्म देती है।
मुखबिर तंत्र का दुरुपयोग: गुमनाम चिट्ठियां जब बन जाती हैं हथियार
उत्तर प्रदेश पुलिस में ‘मुखबिर’ तंत्र हमेशा से अपराध नियंत्रण की रीढ़ रहा है, लेकिन यह व्यवस्था जितनी महत्वपूर्ण है, उतनी ही जटिल भी। ‘रामलाल’ की चिट्ठी इस तंत्र के दुरुपयोग का एक सटीक उदाहरण है, जो दिखाती है कि कैसे गुमनाम शिकायतों को व्यक्तिगत दुश्मनी निकालने के लिए एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। एक समय था जब मुखबिर पुलिस के गुमनाम दोस्त होते थे, लेकिन व्यवस्था में आई गिरावट ने इस तंत्र को भी दूषित कर दिया है। आज स्थिति यह है कि कई शातिर अपराधी पुलिस का संरक्षण पाने के लिए मुखबिर बन जाते हैं और अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए पुलिस का ही इस्तेमाल करते हैं।


