हनुमान प्रसाद पोद्दार, जिन्हें 'भाई जी' के नाम से जाना जाता है, ने 13 साल की उम्र में विदेशी वस्तुओं की होली जलाकर स्वदेशी आंदोलन में हिस्सा लिया था। उनकी यह कहानी न केवल एक स्वतंत्रता सेनानी की है, बल्कि गीता प्रेस के संस्थापक की भी है, जिसने भारत को आध्यात्मिक साहित्य से जोड़ा।
गोरखपुर: भारत को धार्मिक ग्रंथों के शुद्ध और किफायती संस्करण उपलब्ध कराने का श्रेय जिन्हें जाता है, वो हैं हनुमान प्रसाद पोद्दार, जिन्हें लोग ‘भाई जी’ के नाम से जानते हैं। उनका जन्म 17 सितंबर, 1892 को शिलांग में हुआ था। उनकी माता का देहांत तब हो गया था, जब वे सिर्फ दो साल के थे। महज 13 साल की उम्र में उन्होंने एक ऐसा काम किया, जिसने अंग्रेजों को भी हैरान कर दिया था। बंग-भंग आंदोलन से प्रेरित होकर उन्होंने स्वदेशी का व्रत लिया। इस व्रत का पालन न सिर्फ उन्होंने, बल्कि उनकी पत्नी ने भी किया और घर की सभी विदेशी वस्तुओं की होली जला दी थी। उनका जीवन संघर्षों से भरा था, उनके तीन विवाह हुए, जिनमें से दो पत्नियों का जल्द ही देहांत हो गया था।
क्रांतिकारी जीवन और गीता प्रेस की नींव
भाई जी का बचपन से ही झुकाव देशसेवा की ओर था। 1912 में वे अपना पैतृक व्यवसाय संभालने के लिए कोलकाता आए। यहां उनका संपर्क कई स्वतंत्रता सेनानियों और साहित्यकारों से हुआ। वे अनुशीलन समिति से जुड़े और डॉ. हेडगेवार, अरविंद घोष, सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे क्रांतिकारियों के संपर्क में रहे। जब वे रोडा कंपनी में काम कर रहे थे, तब उन्होंने विदेशों से आई रिवाल्वरों की एक पूरी खेप क्रांतिकारियों को सौंप दी थी। इस आरोप में उन्हें दो साल के लिए अलीपुर जेल में रहना पड़ा। जेल से बाहर आने के बाद, वे 1918 में मुंबई आ गए। यहीं पर उन्होंने सेठ जयदयाल गोयन्दका के सहयोग से 1926 में धार्मिक पत्रिका ‘कल्याण’ की शुरुआत की।
धर्मग्रंथों का शुद्धिकरण और किफायती प्रकाशन
कुछ साल बाद, भाई जी ने गोरखपुर में ‘गीता प्रेस’ की स्थापना की और ‘कल्याण’ पत्रिका का प्रकाशन भी वहीं से होने लगा। 1933 में उन्होंने अंग्रेजी में ‘कल्याण कल्पतरू’ पत्रिका भी शुरू की। इन दोनों ही पत्रिकाओं की खास बात यह है कि ये आज भी बिना किसी विज्ञापन के प्रकाशित होती हैं। भाई जी को धार्मिक ग्रंथों में पाठभेद और त्रुटियों से बहुत पीड़ा होती थी। उन्होंने तुलसीकृत श्री रामचरितमानस की जितनी भी हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध थीं, उन्हें इकट्ठा किया और विद्वानों के साथ मिलकर उनका शुद्ध पाठ ‘मानस पीयूष’ तैयार करवाया। यह उनका एक बड़ा योगदान था, जिसने धार्मिक साहित्य को त्रुटिरहित बनाने में मदद की।
एक ऐसा संस्थान जो हमेशा जनसेवा के लिए समर्पित रहा
गीताप्रेस की स्थापना के बाद, भाई जी ने बच्चों, युवाओं, महिलाओं और वृद्धों के लिए बहुत कम कीमत पर संस्कारक्षम साहित्य प्रकाशित करना शुरू किया। उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता के भी अनेक संस्करण निकाले। इसके साथ ही 11 उपनिषदों के शंकर भाष्य, वाल्मीकि रामायण, महाभारत और विष्णु पुराण जैसे प्रमुख धर्मग्रंथों को भी लागत मूल्य पर प्रकाशित किया। उनका मानना था कि इन ग्रंथों को हर किसी तक पहुंचना चाहिए। वे ऐसी व्यवस्था करके गए, जिससे उनके देहावसान के बाद भी यह कार्य निरंतर चलता रहे। 22 मार्च 1971 को उनका निधन हो गया, लेकिन उनके द्वारा शुरू किया गया यह जनसेवा का कार्य आज भी जारी है।