पुराने लोग, पुरानी यादें
Neelam Srivastava |
- नीलम श्रीवास्तव | SUNDAY, 23/07/2023
यह सत्तर के दशक की बात होगी. मैं मूलत: महराजगंज जिले के घुघुली ब्लॉक के मटकोपा गांव की रहने वाली हूं.
हमारे गांव के नजदीक ढेर सारे गांव थे. सभी बस चंद कदमों की दूरी पर. ऐसा लगता था कि जैसे सारे गांव किसी बहुत बड़े गांव के छोटे-छोटे टोले हों.
मेरी दादी अक्सर मुनिरका बाबा का किस्सा सुनाया करती थी. घर में आए दिन किसी न किसी बात पर मुनिरका बाबा का किस्सा दादी की जुबान पर आ जाता था और लोग खिलखिलाकर हंस पड़ते थे.
मुनिरका बाबा पास के ही गांव हरपुर महंथ के रहने वाले थे. उनकी खासियत यह थी कि वह कभी अपने घर नहीं रहते थे. रमता जोगी बहता पानी की तरह आज इस गांव, कल उस गांव…मुझे ऐसा कोई संदर्भ नहीं याद कि जिससे उनके परिवार के सदस्यों के बारे में पता चलता हो…लेकिन मान लें कि आस पास के पांच दस गांव उनका परिवार थे.
मुनिरका बाबा दिन ढलते ढलते किसी गांव में, किसी के घर दरवाजे पर पहुंच जाते थे. बहुत ही सहजतापूर्वक और अधिकार से कहते…आज घरे नहीं जाइब ए बाबू…दू ठो रोटी और खटिया चादर दे दअ. खा के ऐहीं सुत जाइब.
मुनिरका बाबा को कौन नहीं जानता था…मुनिरका बाबा को कौन मना करता था. भोजन करने के बाद वह मेजबान के दुआरे पर उसकी खटिया चादर बिछाकर सो जाते थे.
अब यहीं वह किस्सा आता है जिसके लिए मुनिरका बाबा जाने गए…और उनकी जो खासियत दशकों बाद भी लोगों के जेहन में ताजा है…उनकी जो आदत हंसा जाती है.
रात में दूसरे पहर या तीसरे पहर को जब मुनिरका बाबा की आंख खुलती…तो न जाने किस भाव में वह मेजबान की खटिया-चादर सिर पर उठाकर किसी और ठिकाने चल देते थे. उनकी सुबह कहां होती थी, कहां शाम होती थी…किसी को कुछ नहीं पता. हां, मेजबान को उसकी चादर-खटिया का पता ज़रूर चल जाता था.
ऐसे थे हमारे जवार के मुनिरका बाबा…
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