Shaheed Ramprasad bismil’s mother in Gorakhpur: गोरखपुर शहर के व्यस्ततम बाजारों में से एक हिंदी बाजार. यहां तिराहे पर खड़ी मीनार सिर्फ़ उस बाजार की ही नहीं बल्कि पूर्वांचल की पहचान है. यह जगह बलिदान की गौरव-गाथा समेटे हुए है. आज़ादी के लिए बिगुल फूंकने वाले दर्जनों वीरों को अंग्रेजों ने यहां फांसी के फंदे पर लटका दिया था. आज यह जगह घंटाघर के नाम से मशहूर है. घंटाघर की दीवार पर अमर बलिदानी राम प्रसाद बिस्मिल की तस्वीर लगी है. यह तस्वीर इस भवन और बिस्मिल के संबंध के बारे में बहुत कुछ कहती है. 19 दिसंबर 1927 में जब जिला कारागार में बिस्मिल को फांसी दी गई तो अंतिम संस्कार से पहले शहर में निकली उनकी शवयात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव घंटाघर भी था. वहां कुछ देर के लिए उनका शव रखा गया था. बिस्मिल की मां ने यहां देशभक्तों को संबोधित किया और आज़ादी की जंग में शामिल होने के लिए ललकारा था.

आज जहां घंटाघर है, वहां 1930 से पहले पाकड़ का एक विशाल पेड़ हुआ करता था. इसी पेड़ को अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति के दौरान देशभक्तों को फांसी देने के लिए चुना था. अंग्रेजों की सत्ता को ही चुनौती देने वाले अली हसन को बिरतानी हुकूमत ने इसी पाकड़ के पेड़ से लटका कर फांसी दी थी.

रायगंज के सेठ राम खेलावन और सेठ ठाकुर प्रसाद ने अपने पिता सेठ चिगान साहू की याद में, 1930 में यहां मीनार का निर्माण कराया. यह मीनार स्वाधीनता के पहले संग्राम के दौरान देश पर अपनी जान कुर्बान करने वाले बलिदानियों को समर्पित की गई. सेठ चिगान के नाम पर बनने की वजह से मीनार को बहुत दिनों तक चिगान टावर के नाम से जाना जाता था. बाद में उस पर घंटे वाली घड़ी लगा दी गई. इसके बाद यह जगह घंटाघर के नाम से मशहूर हो गई. घंटाघर के बनने की कहानी आज भी उसकी दीवारों पर हिंदी और उर्दू भाषा में लिखी हुई है.

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By गो गोरखपुर

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