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जाति जनगणना समय की मांग, भारत में जातियां एक बड़ा सच

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जाति जनगणना समय की मांग, भारत में जातियां एक बड़ा सच
जाति जनगणना समय की मांग, भारत में जातियां एक बड़ा सच

Caste-based census in India: भारत में जाति जनगणना की मांग एक जटिल और बहुआयामी मुद्दा है, जिसकी जड़ें औपनिवेशिक काल से लेकर वर्तमान तक फैली हुई हैं। यह विषय न केवल सामाजिक न्याय और समानता की बहसों के केंद्र में रहा है, बल्कि इसने भारतीय राजनीति और आरक्षण नीतियों को भी गहराई से प्रभावित किया है। इस मांग के इतिहास को मोटे तौर पर ब्रिटिश काल और स्वातंत्रयोत्तर काल में विभाजित करके इसके विभिन्न पहलुओं को समझा जा सकता है।

ब्रिटिश काल में जाति जनगणना

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान, भारत में व्यवस्थित रूप से जाति आधारित जनगणना कराई गई। 1872 से लेकर 1931 तक, प्रत्येक दशक की जनगणना में जाति एक महत्वपूर्ण आधारभूत वर्गीकरण रहा। ब्रिटिश सरकार ने इस डेटा का उपयोग प्रशासनिक उद्देश्यों और अपनी “फूट डालो और राज करो” की नीति को मजबूत करने के लिए किया। इन जनगणनाओं के माध्यम से विभिन्न जातियों की जनसंख्या, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति और भौगोलिक वितरण का विस्तृत रिकॉर्ड तैयार किया गया। 1931 की जनगणना विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अंतिम व्यापक जाति जनगणना थी। इसके बाद, ब्रिटिश सरकार ने तर्क दिया कि जाति आधारित जनगणना राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा पैदा कर सकती है, जिसके चलते इसे बंद कर दिया गया। 1941 में एक सीमित जाति जनगणना हुई, लेकिन इसके आंकड़े अधूरे और अविश्वसनीय माने जाते हैं। ब्रिटिश काल की यह जाति जनगणना, भले ही औपनिवेशिक हितों से प्रेरित थी, आज भी अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की जनसंख्या और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का अनुमान लगाने के लिए एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक आधार मानी जाती है।

स्वतंत्रता के बाद जाति जनगणना पर रुख

स्वतंत्र भारत ने जाति के आधार पर जनगणना जारी रखने से इनकार कर दिया। 1951 में हुई पहली जनगणना में जातिगत आँकड़े एकत्र नहीं किए गए। इसके पीछे मुख्य तर्क यह था कि स्वतंत्र भारत एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करना चाहता है जहाँ जाति आधारित विभाजन समाप्त हो और सामाजिक समरसता को बढ़ावा मिले। इसलिए, राष्ट्रीय स्तर पर केवल अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) की जनसंख्या का ही डेटा एकत्र किया गया, क्योंकि इन्हें संविधान में विशेष सुरक्षा और प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया था।

हालांकि, जाति का मुद्दा भारतीय राजनीति और सामाजिक न्याय की बहसों में हमेशा जीवित रहा। 1970 और 1980 के दशक में इस मांग ने फिर से जोर पकड़ा। 1979 में गठित मंडल आयोग ने अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) की पहचान और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आकलन करने के लिए 1931 की जाति जनगणना को ही आधार बनाया। 1980 में आयोग ने ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में 27% आरक्षण की सिफारिश की। जाति जनगणना के अभाव में, मंडल आयोग की सिफारिशें और ओबीसी की वास्तविक जनसंख्या का अनुमान विवादों से घिरा रहा।

मंडल आयोग: ओबीसी आरक्षण की संवैधानिक वैधता

मंडल आयोग, जिसे आधिकारिक तौर पर सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग आयोग (Socially and Educationally Backward Classes Commission – SEBC) के रूप में जाना जाता है, भारत सरकार द्वारा 1 जनवरी 1979 को तत्कालीन प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गठित किया गया था। इस आयोग का मुख्य उद्देश्य भारत में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लोगों की पहचान करना था ताकि उनके उत्थान के लिए सिफारिशें की जा सकें। आयोग की अध्यक्षता बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल (बी.पी. मंडल) ने की थी, और इसी कारण इसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट 31 दिसंबर 1980 को प्रस्तुत की। मंडल आयोग की सिफारिशें वर्षों तक ठंडे बस्ते में पड़ी रहीं। आखिरकार, 7 अगस्त 1990 को तत्कालीन प्रधान मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण लागू करने की घोषणा की। इस निर्णय का देशव्यापी विरोध हुआ, लेकिन इसने भारतीय राजनीति और सामाजिक न्याय की दिशा को महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया। 1992 में, सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले में मंडल आयोग की सिफारिशों को कुछ संशोधनों के साथ बरकरार रखा, जिससे ओबीसी आरक्षण की संवैधानिक वैधता स्थापित हुई।

2011 की जाति जनगणना और उसके बाद

2011 में, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार ने सामाजिक-आर्थिक जनगणना (एसईसीसी) 2011 के तहत जातिगत डेटा एकत्र करने का एक प्रयास किया। इस अभ्यास में देश भर से 46 लाख से अधिक जातियों और उपजातियों की एक सूची तैयार की गई। हालांकि, इस डेटा की गुणवत्ता और विश्वसनीयता पर कई सवाल उठाए गए। सरकार ने तर्क दिया कि यह डेटा “वैज्ञानिक नहीं” है और इसे सार्वजनिक करने से सामाजिक तनाव बढ़ सकता है। परिणामस्वरूप, एसईसीसी 2011 के जातिगत आँकड़े आज तक पूरी तरह से प्रकाशित नहीं किए गए हैं, जिससे इस मुद्दे पर बहस और तेज हो गई।

इसके बावजूद, पिछड़े वर्गों के नेताओं और दलित संगठनों ने लगातार जाति जनगणना की मांग को उठाया है। उनका तर्क है कि ओबीसी के लिए वर्तमान 27% आरक्षण का कोटा 1931 के पुराने आँकड़ों पर आधारित है, जो वर्तमान सामाजिक और demographic वास्तविकताओं से मेल नहीं खाता है। जाति जनगणना के माध्यम से ओबीसी की सही जनसंख्या और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आकलन करके आरक्षण नीति को अधिक न्यायसंगत बनाया जा सकता है। इस संदर्भ में, 2021 में बिहार सरकार द्वारा राज्य स्तर पर शुरू की गई जाति जनगणना एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। 2023 में इसके परिणाम जारी किए गए, जिसमें राज्य की कुल आबादी में ओबीसी और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (ईबीसी) की जनसंख्या 63% बताई गई। बिहार का यह कदम राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना की मांग को और अधिक बल दे सकता है।

जाति जनगणना की मांग के पीछे तर्क

जाति जनगणना की मांग के पीछे कई महत्वपूर्ण तर्क दिए जाते हैं। सबसे प्रमुख तर्क आरक्षण नीति के पुनर्निर्धारण से संबंधित है। समर्थकों का मानना है कि ओबीसी की वास्तविक जनसंख्या के आँकड़े उपलब्ध होने पर आरक्षण के कोटे को अधिक वैज्ञानिक और न्यायसंगत तरीके से निर्धारित किया जा सकेगा। वर्तमान में, 1931 के आँकड़ों पर आधारित 27% आरक्षण को कई लोग अपर्याप्त मानते हैं। दूसरा महत्वपूर्ण तर्क सामाजिक न्याय से जुड़ा है। जाति जनगणना से पिछड़े वर्गों की वास्तविक सामाजिक-आर्थिक स्थिति का सटीक आकलन हो सकेगा, जिससे उनके लिए लक्षित विकास योजनाएं बनाने और यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि योजनाओं का लाभ सही लोगों तक पहुँचे। इसके अलावा, जाति जनगणना के समर्थक यह भी मानते हैं कि इससे राजनीतिक रूप से पिछड़े वर्गों को अधिक प्रभावी ढंग से संगठित होने और अपनी मांगों को उठाने में मदद मिलेगी। कई राजनीतिक दल भी ओबीसी वोट बैंक को आकर्षित करने के लिए जाति जनगणना की वकालत करते हैं।

जाति जनगणना के विरोध के पीछे के तर्क

जाति जनगणना के विरोध में भी कई तर्क दिए जाते हैं। आलोचकों का मुख्य डर यह है कि इससे समाज में पहले से मौजूद जातिगत विभाजन और अधिक गहराएगा और सामाजिक समरसता बाधित होगी। उनका मानना है कि जाति को फिर से गिनने से लोगों की पहचान जाति पर और अधिक केंद्रित हो जाएगी, जिससे राष्ट्रीय एकता कमजोर हो सकती है। इसके अलावा, जाति जनगणना को लागू करने में प्रशासनिक चुनौतियाँ भी हैं। भारत में हजारों जातियाँ और उपजातियाँ हैं, और इन जटिल श्रेणियों को सही ढंग से वर्गीकृत करना और उनका डेटा एकत्र करना एक मुश्किल काम हो सकता है, जिससे त्रुटियों की संभावना बढ़ जाती है। कुछ आलोचक यह भी आशंका व्यक्त करते हैं कि जाति जनगणना के आँकड़ों का इस्तेमाल राजनीतिक दलों द्वारा जाति-आधारित राजनीति को बढ़ावा देने और समाज को और अधिक ध्रुवीकृत करने के लिए किया जा सकता है।

गहन चर्चा और विमर्श जारी रहने की संभावना

भारत में जाति जनगणना की मांग का इतिहास स्वतंत्रता से पहले ब्रिटिश काल से जुड़ा हुआ है, जहाँ इसका उपयोग प्रशासनिक नियंत्रण के लिए किया गया था। स्वतंत्रता के बाद, राष्ट्रीय स्तर पर एससी/एसटी के अलावा जातिगत आँकड़े एकत्र नहीं किए गए, 2011 की एसईसीसी एक अपवाद रही जिसे अधूरा छोड़ दिया गया। वर्तमान में, यह मांग सामाजिक न्याय और आरक्षण नीतियों के पुनर्निर्धारण से गहराई से जुड़ी हुई है, लेकिन इस पर व्यापक राष्ट्रीय सहमति का अभाव है। बिहार जैसे राज्यों द्वारा अपने स्तर पर जाति जनगणना शुरू करने से राष्ट्रीय बहस को एक नई दिशा मिली है। यह मुद्दा भारतीय समाज और राजनीति की जटिल गतिशीलता को समझने का एक महत्वपूर्ण पहलू बना हुआ है, और इस पर आगे भी गहन चर्चा और विमर्श जारी रहने की संभावना है।

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तृप्ति श्रीवास्तव

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