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अड़ार: जीवन और नदी के बीच की संघर्ष गाथा

green and brown tree on body of water

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अड़ार: जीवन और नदी के बीच की संघर्ष गाथा
अड़ार: जीवन और नदी के बीच की संघर्ष गाथा

“अड़ार” शब्द, जो देशज और भोजपुरी भाषियों के लिए सहज है, अन्यों के लिए एक अपरिचित अवधारणा हो सकती है। इसे उर्दू में “किनारा” या “हाशिया” और अंग्रेजी में “मार्जिन” के रूप में समझा जा सकता है। लेकिन यह शब्द सिर्फ एक भौतिक सीमा नहीं, बल्कि जीवन और प्रकृति के बीच के संघर्ष का प्रतीक है।

कल्पना कीजिए उस नदी की, जो किसी समाज के जीवन का अभिन्न अंग है। कृषि प्रधान देश में यह किसानों के लिए अन्नदाता है, सभ्यता का पालना है, और आज भी कई रूपों में जीवनदायिनी है। लेकिन यही नदी बाढ़ के दिनों में एक बड़ी चुनौती बनकर खड़ी हो जाती है। “अड़ार” नदी के उसी उग्र और वेगवान किनारे का नाम है, जो बाढ़ के समय सबसे ज्यादा खतरे में होता है।

जिन लोगों ने 70 के दशक के पूर्वांचल को देखा है, उन्हें राप्ती, रोहिन, सरयू, छोटी गंडक और बड़ी गंडक जैसी नदियों की विनाशलीला याद होगी। आषाढ़ के महीने में ये नदियाँ विकराल रूप धारण कर लेती थीं। “कछार” क्षेत्र का जीवन, जो राप्ती के किनारे बसा था, इस खतरे से हमेशा घिरा रहता था। यहाँ के लोग अपनी सुरक्षा के लिए सामूहिक प्रयास से एक बांध बनाते थे, ताकि बाढ़ का पानी उनके घरों और खेतों को नुकसान न पहुंचा सके।

जब नदी की तेज धारा बांध के किनारे “अड़ार” को काटने लगती थी, तो पूरा गाँव एकजुट हो जाता था। लोग हाथों में खांची और कुदाल लेकर चींटियों की तरह पंक्तिबद्ध होकर “अड़ार” को बचाने में जुट जाते थे। वे अक्सर सफल होते थे, लेकिन कभी-कभी उन्हें हार का सामना भी करना पड़ता था। भादो की अंधेरी रातों में “जागते रहो” की गूँजती आवाज से पूरा क्षेत्र सतर्क रहता था, क्योंकि प्रतिद्वंद्वी समूह अपने बचाव के लिए उनके बांध को काटने की कोशिश कर सकते थे। यह एक तरह का महाभारत था, जो कई रातों तक चलता था।

“जहां दरिया कहीं अपने किनारे छोड़ देता है, कोई उठता है और तूफान का रुख मोड़ देता है।”

आज, सात दशकों के बाद, “अड़ार” का खतरा काफी हद तक कम हो गया है। तकनीकी विकास और बेहतर बाढ़ प्रबंधन के कारण नदियों का प्रकोप पहले जैसा नहीं रहा। लेकिन जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में “अड़ार” से बचने के प्रयास अभी भी जारी हैं। यह शब्द हमें याद दिलाता है कि कैसे मनुष्य और प्रकृति के बीच का संघर्ष सदियों से चला आ रहा है, और कैसे सामुदायिक प्रयास और साहस से हम बड़ी से बड़ी चुनौतियों का सामना कर सकते हैं।

“अड़ार” सिर्फ एक भौगोलिक शब्द नहीं, बल्कि सामूहिक संघर्ष, साहस और जीवन की अटूट भावना का प्रतीक है। यह हमें याद दिलाता है कि कैसे मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, और कैसे हमें मिलकर अपने जीवन की रक्षा करनी चाहिए।

जगदीश लाल

About Author

हिंदी पत्रकारिता से करीब चार दशकों तक सक्रिय जुड़ाव. संप्रति: लेखन, पठन-पाठन.

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