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बात-बेबात बतकही

बाजार निगल रहा है परिवार की नज़दीकियां

बतकही-गो गोरखपुर

परिवार टूट रहे हैं. संबंध बिखर रहे हैं. पति-पत्नी, भाई-भाई, भाई-बहन, पिता-पुत्र के बीच की आत्मीयता अब पहले जैसी नहीं रही. संबंधों के निर्वहन के लिए आवश्यक तत्व “त्याग” व “सहनशीलता” का तेजी से ह्रास हो रहा है. यह प्रवृत्ति मध्यम वर्ग के बीच ज्यादा परिलक्षित होने लगी है. जीवन मूल्यों का सर्वाधिक निर्वाह करने वाला यह वर्ग इस समय ज्यादा संकट में है.

आज से 50 साल पहले (कहीं-कहीं अभी भी) संयुक्त परिवार हुआ करते थे. ऐसे परिवारों में स्त्री, पुरुष, बच्चों का एक बड़ा कुनबा हुआ करता था. आजीविका का स्रोत खेती होती थी. शिक्षा सिर्फ ज्ञान का स्रोत थी. उसका बाजार से कोई सीधा रिश्ता नहीं था. पढ़ लिख लिया तो भी नौकरी से दूर रहते थे. किसी का नौकर होना खराब माना जाता था. चाहे वह सरकारी नौकरी ही क्यों ना हो. जरूरी हुआ तो नौकरी में एक जाति विशेष के लोग ही जाते थे. जीवन का आनंद समूह में रहकर ही पाने की लालसा थी.

राहत इंदौरी साहब फरमाते हैं –
क्या खरीदोगे, बाजार बहुत महंगा है,
प्यार की जिद ना करो, प्यार बहुत महंगा है.

इस टूटन का दोष युवाल नोआह हरारी पूंजीवाद को देते हैं. वे इज़राइल के एक इतिहासकार और येरुशलम के हिब्रू विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में प्रोफेसर हैं. उन्होंने मानवशास्त्र की पुस्तक सैपियन्स: ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ ह्यूमनकाइंड लिखी है. यह पुस्तक दुनिया की बेस्ट सेलर पुस्तकों में से एक है. 2014 में प्रकाशित इस पुस्तक में सारांशतः परिवार और समाज के विखंडन का दोष बाजार अथवा पूंजी को दिया गया है.

उन्होंने उदाहरण दिया है – “क” एक व्यक्ति है. वह संयुक्त परिवार में जीवन निर्वाह करता है.उसके लिए दूसरे और दूसरों के लिए वह काम आता है. वह संयुक्त परिवार की एक इकाई है.

दूर बैठी बाजारू शक्तियां उसके इस चरित्र को देखकर ठगा महसूस करती हैं. वह सोचने लगती हैं कि “क” के लिए वह किस तरह काम आ सकती हैं. वह “क” की जरूरत को समझना शुरू करती हैं. इस बहाने वह “क” की हमदर्द बनती हैं. “क” अपने परिवार से धीरे-धीरे संवेदना के स्तर पर कटने लगता है. 

“क” के अंदर व्यक्तिवाद इस कदर विकसित हो जाता है कि वह परिवार का साथ छोड़ देता है. बाजार की इस भूमिका को देखकर सत्ता बाजार का संरक्षण करने लगती है. बाजार की बेहतरी के लिए नीतियां तय करने का काम मजबूती से करने लगती है.

किसी शायर ने कहा है –
मुलाकात जरूरी है, गर रिश्ते निभाने हों,
लगाकर भूल जाने से पौधे भी सूख जाते हैं. 


Jagdish Lal

Jagdish Lal

About Author

हिंदी पत्रकारिता से करीब चार दशकों तक सक्रिय जुड़ाव. संप्रति: लेखन, पठन-पाठन.

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