चिकित्सा कर्म, सेवा नहीं है. इसे ‘सेवा’ के नजरिये से देखे जाने की समझ अब पुरानी और व्यर्थ हो चुकी लगती है. चिकित्सक की फीस चुकाने के साथ ही, डॉक्टर और मरीज का रिश्ता बाज़ारू हो जाता है. इस रिश्ते में दया, करुणा, संवेदनशीलता, सम्मान की अपेक्षा रखना बेमानी है. बात कड़वी, मगर सच है.
मरीज़ चाहे कितना भी पढ़ा लिखा हो, लेकिन वह डॉक्टर का नाम लेकर नहीं संबोधित करता. वह उसे आदर-सम्मान के साथ ‘डॉक साब’ कहता है. उसे मरीज की तरफ से यह सम्मान मुफ्त मिलता है. चिकित्सा जगत, मरीज़ों से मिलने वाले इस मुफ़्त सम्मान का शायद कभी शुक्रगुज़ार नहीं होता.
किसी गंभीर बीमारी से जूझ रहे मरीज़ और उसके परिजन की हताशा, निराशा, कमअक्ली की कल्पना आसानी से की जा सकती है. इसी शहर में ज़्यादा नहीं, 20-25 साल पहले ऐसे तमाम डॉक्टर थे, जो मरीज़ के आर्थिक हालात से भी सरोकार रखते थे. जांच और दवाएं लिखते समय वह इसका पूरा ध्यान रखते थे. आज यह सब खत्म है.
अब शहर में मरीज़ माफ़िया, मरीज का सौदा करने वाली एंबुलेंस, गली-मुहल्लों में खुले डायग्नोस्टिक सेंटर — क्या ये सभी मरीज़ के आर्थिक शोषण का ज़रिया भर नहीं लगते? डॉक्टरों के बड़े-बड़े विज्ञापन देखकर जब कोई मरीज़ किसी क्लीनिक या प्राइवेट अस्पताल में पहुंचता है, तो उसे वहां क्या मिलता है — क्लीनिक में बैठने कौन कहे, कायदे से खड़े होने की जगह नहीं, अपनी बारी का इंतज़ार, और स्टाफ की धौंस — इन दुश्वारियों को मरीज़ सहता है, क्योंकि उसे डॉक्टर से मिलना है.
अपने मर्ज की पीड़ा झेलते हुए, लंबी कतार में खड़ा असहाय मरीज़ अगर काउंटर पर पूछ ले कि नंबर कब आएगा, तो अस्पताल स्टाफ का जो व्यवहार होता है, उससे सभी वाकिफ़ हैं. डॉक्टर की महंगी फीस के लिए जैसे-तैसे रुपये इकट्ठा करने वाला सुदूर अंचल का तथाकथित देहाती हो या कोई शहराती हो, उसे क्लीनिक के स्टाफ से दोबारा सवाल पूछने का कोई अधिकार नहीं. बैठे रहिये, जब नंबर आएगा बुला लिया जाएगा.
तीमारदार यह नहीं पूछ सकता कि अगर लंबे इंतज़ार के दौरान उसे दीर्घ या लघुशंका हो तो क्लीनिक या हॉस्पिटल में इसकी क्या व्यवस्था है, अगर प्यास लगे तो क्लीनिक में साफ़ पीने लायक पानी है या नहीं, हॉस्पिटल परिसर में पार्किंग की व्यवस्था है या नहीं? इन बुनियादी सुविधाओं की कोई व्यवस्था निजी अस्पताल या क्लीनिक नहीं रखते. इन सारी समस्याओं के समाधान का ज़िम्मा मरीज़ के माथे होता है.
मरीज़, डॉक्टर के कमरे में हाथ जोड़े और अपने चेहरे पर एक निवेदन का भाव लिए पहुंचता है. एक दृढ़ विश्वास के साथ कि डॉक्टर साहब उसे ठीक कर देंगे. पहले के चिकित्सक मरीज़ के इन भावों का सम्मान करते थे. उनका पूरा ज़ोर मर्ज़ पकड़ने पर होता था, न कि मरीज़ को देखकर यह अनुमान लगाने पर कि उसकी पॉकेट से कितना निकाला जा सकता है. यहां सवाल यह है कि डॉक्टर के कमरे में दाखिल होते मरीज़ के चेहरे पर तो भाव अब भी वही होते हैं, सम्मान वही होता है, लेकिन बदल क्या गया है? दरअसल, बदलाव आया है डॉक्टर के नज़रिये में — मरीज़ की पॉकेट आंकने का. गिरावट यहां से शुरू हुई है.
क्या यह प्रश्न लाज़िमी नहीं कि जब चिकित्सों के यहां मरीज़ों की कतारें कम नहीं हुईं तो उन्हें बाउंसर रखने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी? क्या किसी बीमारी से तंगहाल, फटेहाल मरीज़ निजी अस्पताल में बाउंसर शो देखने आता है? डॉक्टर साहब! मरीज़ मोटी फ़ीस दे सकता है, घंटों लाइन में लगा रह सकता है, महंगी जांचें करा सकता है, भूख-प्यास बर्दाश्त कर सकता है — लेकिन खेत बेचने, जेवर गिरवी रखने और सब कमाई लुटाने के बाद भी जब उसका मर्ज़ उसे सालता है, अस्पताल कर्मी उससे ज़रा भी सिंपैथी नहीं रखते, तीमारदार तभी बेचैन होता है. बाउंसर रखकर उसकी पीड़ा का गला मत घोटिये. वरना इसके अंजाम न मरीज़ के हित में हो सकते हैं और न ही डॉक्टरी पेशे के हित में.
चिकित्सक और मरीज़ का रिश्ता कभी खत्म नहीं होने वाला है. एक बात तो हमेशा तय होती है कि मरीज़ तमाम मजबूरियों में लिपटा होता है…उसकी स्थितियों में भी ‘लाभ’ ढूंढने के रवैये को कैसे जायज ठहराया जा सकता है?
Amit srivastava
06/10/2024बेहद प्रसंगिग है यह लेख। बाजारीकरण के इस दौर में चिकित्सक समाज को अपना वह ऐनक उतार फेंकना चाहिए, जिससे एक बेबस, लाचार, गरीब मरीज उपभोक्ता -ग्राहक नज़र आता है।
जे.लाल
06/10/2024क्या साहब! डॉक्टर हमारा दर्द हरे न हरे लेकिन आपने अपनी कलम चला कर हमारा क्या, सारे समाज का दर्द निचोड़ कर अपने कागज पर फैला दिया। आपकी लेखनी और साहस को सलाम।