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बात-बेबात ठोंक बजा के...

चुपचाप, खुद ही अतिक्रमण की हदें समेटना क्या कहता है…

चुपचाप, खुद ही अतिक्रमण की हदें समेटना क्या कहता है…
चुपचाप, खुद ही अतिक्रमण की हदें समेटना क्या कहता है…

यह तस्वीर अपने गलत कार्यों की मौन स्वीकृति की गवाही है. कानून व्यवस्था को ठेंगे पर रखकर पिछले दिनों जिस सड़क पर तांडव हुआ, वहां अब अपनी सीमा खुद ही दुरुस्त करने का यह मंजर सोशल मीडिया पर वायरल है. अब अपने आश्रितों के भविष्य की चिंता, एक अनजाना डर…आगे क्या होगा, आशियाना उजड़ जाने का मंडराता खतरा…इन सवालों के साये में, चेहरे पर अनुनय-विनय का भाव…चुपचाप हथौड़े से हदें दुरुस्त करना सिर्फ़ एक नोटिस का नतीजा ही नहीं है…यह स्वीकृति है – खुद के गलत कार्यों की.

सोशल मीडिया पर, बहराइच के एक बहुप्रसारित वीडियो में एक युवक मकान की छत की रेलिंग तोड़ता नजर आता है. गौरतलब है कि यहां 23 मकान मालिकों को नोटिस भेजा गया है. नोटिस लोक निर्माण विभाग ने भेजा है. बहराइच में पिछले दिनों क्या हुआ, क्यों हुआ, किसने किया…ये सारे सवाल कानूनी पेचीदगी से भरे पड़े हैं. लेकिन यहां अचानक पी​डब्ल्यूडी की एंट्री ने जैसे मौसम ही बदल दिया? चेहरों पर जो हवाइयां उड़ रही हैं, उनसे कई सवालों के जवाब खुद मिल जाते हैं.

हथौड़े लेकर अपनी ही चौखट की हदें तोड़ने की नौबत क्यों आई…अभी कुछ ही दिनों पहले तो वहां, उसी सड़क के इर्द-गिर्द रहने वालों के सिर पर एक सनक सवार थी, जिसका नतीजा एक युवक की हत्या, तनाव और संघर्ष के रूप में सामने आया था….हफ्तेभर में अचानक ये नज़ारा बदला आखिर कैसे?

जो लोग यह तर्क देते हैं कि बहराइच में हुई दुर्घटना के लिए पुलिस-प्रशासन जिम्मेदार हैं. उन्होंने अपना काम पूरी मुस्तैदी से नहीं किया, तो ऐसे लोगों के शक-संदेह का जवाब भी इस तस्वीर में छिपा हुआ है. यह तस्वीर, अतिक्रमण की राजनीतिक छूट का लाभ उठाने वाले लोगों के मन में, उस दहशत भरी चेतावनी का एक जीता-जागता सुबूत है, जो कहता है कि अब कानून अपना काम जरूर करेगा.

त्योहारों पर, गली-कूचों में पुलिस की फौज़ खड़ी करके क्या ऐसे लोगों को रोक पाना आसान है, जिनके सिर पर सनक सवार हो? पुलिस-प्रशासन को कोसना तो सबसे आसान और सतही तर्क है. ऐसी दुखद घटनाओं के बाद सियासी आंसुओं की असलियत भी किसी से छिपी नहीं है. सत्ताच्युत नेताओं के आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच, अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति दृढ़ हो तो ‘लॉ ऐंड आर्डर’ काम एक नोटिस से भी आसान हो सकता है.

लोकतांत्रिक अधिकारों और खुलेआम अराजकता में काफ़ी अंतर है. पहले में विवेक है, तो दूसरे में सिर्फ और सिर्फ सनक… ऐसे में, अकेले आपराधिक कानूनों की धाराएं काफी नहीं हैं. कागज़ी मुकदमे किसी अपराधी के जीवनकाल से भी बड़े हो सकते हैं. न्याय मिलने में आखिर इतना इंतज़ार क्यों? बहराइच में जिन परिवारों के घरों पर नोटिस चस्पा हुआ है, उन्होंने अतिक्रमण, अवैध निर्माण अपने पूरे होशो-हवास में, और यह जानते हुए किया होगा कि वे किसी दल के सधे हुए वोट हैं, लिहाजा इतना अधिकार तो उन्होंने है ही. नहीं?

लेकिन, हाल की घटना के बाद जब अतिक्रमण करने वालों की कुंडली लोक निर्माण विभाग की फाइलों से बाहर आई, तो ‘आंसू, दया, करुणा, गरीबी, मुफ़लिसी, कहां सिर छिपाएंगे…’ इन नाज़ुक जज्ब़ात के दम पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति शुरू हो गई. वही दल जो प्रदेश में अतिक्रमण करने की खुली छूट देते आए हैं…वही राजनेता जो माहौल को कसैला करते आए हैं.

गलत राजनीतिक संरक्षण की परंपरा के चलते ‘वोटबैंकों’ ने यह सोचना ही छोड़ दिया है कि कानून हाथ में लेने का हश्र क्या होगा. ऐसे में, क्या हठधर्मिता करने, राजनीतिक संरक्षण के दम पर अतिक्रमण की छूट का लाभ उठाने, और सड़कों पर खुली अराजकता करने का रिवाज़ कायम रहना चाहिए?

यह तस्वीर इस सवाल का सीधा जवाब देती है- ‘नहीं’. यही इस तस्वीर का सबक है.

जिन्होंने अतिक्रमण किया है, उनके पास शायद पीडब्ल्यूडी के उस नोटिस का कोई संतोषजनक जवाब नहीं है. उनका चुपचाप, खुद ही अतिक्रमण की हदें समेटना क्या कहता है…इसका जवाब सियासी चश्मे से मत ढूंढ़ें.

Siddhartha Srivastava

Siddhartha Srivastava

About Author

Siddhartha Srivastava का आज, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, हिंदुस्तान, दैनिक जागरण जैसे हिंदी अखबारों में 18 साल तक सांस्थानिक पत्रकारिता का अनुभव है. वर्तमान में स्वतंत्र पत्रकारिता. email:- siddhartha@gogorakhpur.com | 9871159904.

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