मंगरू मास्साब बहुत खुश हैं. आज सुबह की चाय पर जब बहुत कुरेदा तो पता चला कि उनकी खुशी की जड़ में “विकास” बैठा हुआ है. यह वही विकास है जिसको लेकर आजकल खूब चर्चा हो रही है. हालांकि विकास को लेकर राजनीतिक हल्कों में चर्चा हाल के कुछ वर्षों से ज्यादा हो रही है.

वे मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि बनाई जा रही फोरलेन, नए नाम से रेलगाड़ियां, निजी क्षेत्र में स्थापित किए जा रहे मेडिकल व इंजीनियरिंग कॉलेज या विश्वविद्यालय, रोज बड़े-बड़े निजी नर्सिंग होम, बिग बाजार, उत्पादन के नए केंद्र “डेवलपमेंट” नहीं “ग्रोथ” हैं.

मंगरू मास्साब को डिक्शनरी में खोजने पर ‘डेवलपमेंट’ और ‘ग्रोथ’ दोनों का हिंदी मायने “विकास” ही मिला. यद्यपि दोनों का अंतर अलग-अलग व्याख्या सहित दिया हुआ है.

अपने इसी विवेक के आधार पर वह ‘विकास’ का परचम उठाए रहते हैं. चाहते हैं कि उनकी इस समझ के लोग हमेशा कायल होते रहें. उन्हें ‘जानकार’ समझा जाए. उनको समाज का बड़ा हमदर्द घोषित कर दिया जाए. सारे तर्कों को दरकिनार करके वह हर बहस में बीस पड़ना चाहते हैं.

कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स के एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने आज उन्हें ‘डेवलपमेंट’ और ‘ग्रोथ’ का अंतर समझाया. उन्हें साफ तौर पर बताया गया कि इस तरह के संरचनात्मक निर्माण में जो पूंजी देशी अथवा विदेशी लग रही है वह संसाधनों की ग्रोथ है, डेवलपमेंट नहीं है. किसी आधारभूत ढांचे, नई संरचना अथवा उसमें संख्यात्मक वृद्धि अथवा निर्माण ग्रोथ की परिभाषा में आते हैं.

इसे माध्यमिक स्तर के विद्यार्थियों तक को किताबों में पढ़ाया जाता है. इस ग्रोथ के फलस्वरूप सृजित संसाधनों का वितरण हम समाज के फायदे के लिए किस तरह या कितना बेहतर कर पाते हैं उसे हम डेवलपमेंट कहते हैं. दूसरे शब्दों में, जन सामान्य को इसका लाभ किस तरह से मिल रहा है.

उदाहरण के तौर पर किसी स्कूल की बिल्डिंग खड़ी कर दिया जाना संसाधनों की ग्रोथ है. लेकिन उसमें पढ़ाई पढ़ने वाले समाज के किस वर्ग से आते हैं, उन विद्यार्थियों को किस तरह की शिक्षा दी जा रही है, उनके ज्ञान में किस स्तर की वृद्धि हो रही है, अथवा इसके मापन के लिए आयोजित की गई परीक्षाओं में किस तरह के अंक वे प्राप्त कर रहे हैं, उनके ज्ञान का स्तर उनके जीवन को किस सीमा तक सुधार पा रहा है, इसे विकास कहते हैं. यह संस्थान अंतरराष्ट्रीय मानकों पर कितना खरा उतर रहा है? इससे तय होगा विकास. झंडे, नारों से नहीं मुंशी जी!

मंगरू मास्साब तब से परेशान हैं.


By जगदीश लाल

हिंदी पत्रकारिता से करीब चार दशकों तक सक्रिय जुड़ाव. संप्रति: लेखन, पठन-पाठन.