औरों की तरह मेरी भी जिंदगी इन दिनों उम्मीदों के बीच कट रही है. बात कल ही की है. बेटे को दिल्ली जाना था. उसे गोरखपुर-आनंद विहार एक्सप्रेस ट्रेन पकड़नी थी. आत्मीयता के वशीभूत उसे स्टेशन छोड़ने चला गया.
महानगर में शहर के जिस हिस्से में रहता हूं वहां से स्टेशन की दूरी 3 किलोमीटर है. कभी यह दूरी काफी उत्साहित किया करती थी. बाहरी हिस्से में बसे होने की वजह से महानगर की रेलमपेल, जाम से छुट्टी. 50 फीट की चौड़ी सड़क पर यूं आया और यूं गया. काफी दिनों तक जेल बाईपास वाली सड़क से गुजरना मायने तनाव से मुक्त सफर हुआ करता था.
इधर बीच यह मार्ग नरक का द्वार हो गया है. ‘विकास’ के पहिये ने इसे रौंदकर इसकी हालत खराब कर रखी है. बरगदवा से लेकर मोहद्दीपुर तक इस मार्ग को फोरलेन में तब्दील किया जा रहा है. इसकी सूरत जब बदलेगी तब बदलेगी. अभी की दुश्वारियां नाकाबिले बर्दाश्त हैं.
पादरी बाजार चौराहे पर ट्रैफिक की ऐसी तैसी हो चली है. प्रदेश के मत्स्य विकास मंत्री के कार्यालय से लेकर बाईपास स्थित पेट्रोल पंप तक चौराहा विकसित किया जा रहा है. जगह-जगह पिलर बनाए जा रहे हैं. नतीजतन सड़क गड्ढों में तब्दील है. हर वाहन चालक पहले निकल लेना चाहता है.
कल धैर्य की परीक्षा थी. उसे पास करते हुए किसी तरह आगे निकल गई गाड़ी. पर यह क्या फिर वही रेलम रेल. कौवाबाग पुलिस चौकी से स्टेशन जाने वाली सड़क पर पहुंचना भी मजेदार रहा. ट्रैफिक को नियंत्रित करने की ड्यूटी से गाफिल सिपाही मोटरसाइकिल की गद्दी पर सवार मोबाइल से गपियाने में व्यस्त. आप ट्रैफिक रूल का पालन करें, दूसरे को जाने दें ना जाने दें आपकी मर्जी.
कौवाबाग रेलवे कॉलोनी से होकर रेलवे स्टेशन पहुंचना हो तो सुखद लगता है. सड़क के दोनों किनारे हरे-भरे वृक्ष मानो साधना में लीन. आगे फिर स्वाद कसैला. रेलवे लाइन के समानांतर प्लेटफॉर्म तक पहुंचाने के लिए बनाई गई कैब-वे का बुरा हाल. जगह-जगह गड्ढे. गड्ढे पानी से भरे हुए. सड़क की दोनों पटरियों पर निर्माण सामग्री से लदी ट्रैक्टर ट्रालियां. मानो किसी प्रदर्शन में आई हुई हों. बची जगह से गुजरने की चुनौती.
क्योंकि आप कार से हैं इसलिए आपको इसी कैब-वे से गुजरने के ₹60 मासूल देने होते हैं. अलग बात है कि आपको कंप्यूटराइज रसीद मिलती है. शायद पैसा ठेकेदार के मार्फत सरकार के खजाने में जाता है. इसी कैब-वे से होकर प्लेटफॉर्म नंबर 9 पर पहुंचा. यहां भी यात्रियों की रेलमपेल. अपनी गाड़ी खड़ी करने की जगह नहीं.
एस्केलेटर तक पहुंचा तो देखा कि दो महिलाएं, जो ग्रामीण इलाके की प्रतीत हो रही थीं, जान की बाजी लगाकर सवार होने में कामयाब रहीं.
पूरा रेल परिसर एक खास तरह की बू से अटा पड़ा था. इसमें यात्रियों के पसीने की गंध, लोडिंग अनलोडिंग वाले माल की बू, इंजन के धुएं, स्टालों पर तली जाने वाली खाद्य सामग्री और न जाने क्या-क्या शामिल प्रतीत हो रहे थे.
बेटे की ट्रेन प्लेटफार्म नंबर चार पर लगी हुई थी. वह रवाना हो गया. मैं प्लेटफार्म की गंदगी, और परिसर की बू, सड़कों के गड्ढे में काफी देर तक विकास को खोजता रहा.