काफी निराशाजनक! गोरखपुर देहात से एक खबर है. बात जीवन की बेहतरी से जुड़ी. गांव की कुछ महिलाएं. एक आशा कार्यकत्री. पहली वालियों को बादवाली ने खुले में शौच से मना किया. उनके मालिकों ने इसे प्रतिष्ठा का विषय बना लिया. उस भली महिला से न केवल घोर प्रतिवाद किया. शायद दुर्व्यवहार किया.
स्वच्छता व्यक्तिगत जीवन मूल्य है. जीवन मूल्य विवेक का विषय. विवेक मां, परिवार, शिक्षा, समाज और श्रेष्ठ जनों से विकसित होता है. उद्दीपन भाव यहीं से शक्ल लेते हैं.
सोचें! शैशव काल से बचपन के दिन. पहला कदम. पहला शब्द. मां की उंगलियां पकड़े आगे बढ़ने की अभिलाष. भाषा के संस्कार. सारी क्रियाओं में से एक क्रिया स्वच्छता भी. मां का अवलंब छूटते ही स्वावलंबी. इन्हीं में से एक नित्य क्रिया. कब, कहां, कैसे? सबका विवेक अपने में समाहित. परिवार समाज के साथ जीवन पथ पर आगे बढ़ना. यह सब मिलकर तय करते नागरिक धर्म. नागरिक धर्म अर्थात हमारी वाणी ,कर्म से समाज का कोई नुकसान न होने पाए. अथवा एक सुंदर समाज बनाने में हमारी क्या भूमिका है,इस पर खरे उतरना.
एक प्रश्न. क्या ऐसा ही है हमारा जीवन? हमारा समाज? क्या है नागर धर्मबोध का स्तर?
इन प्रश्नों का उत्तर सबके पास है. एक जिज्ञासा. तो क्या है उत्तर? क्या उत्साह जनक है? निराशाजनक है. निराशाजनक है तो क्यों? इसे खोजना होगा. घर अपना. तो घर का कूड़ा सड़क पर क्यों? क्या सड़क अपनी नहीं? क्या हम इस पर नहीं चलते? इसके रखरखाव का जिम्मा हमारा नहीं? क्या सिर्फ सरकारी एजेंसियों, रहनुमाओं का ही है देश?
तब गंदगी का त्याग खुले में क्यों? क्या गांव का संपर्क मार्ग हमारा नहीं? मैदान हमारे नहीं? खेत हमारे नहीं? क्या प्रत्यक्षत: बैक्टीरिया, वायरस तथा गंभीर बीमारियों के रोगाणु खतरा नहीं बनते?
मत बहंस करिए. स्वच्छता केवल अर्थजनित जीवन मूल्य नहीं. यह एक प्रकृति और प्रवृत्ति है. गलत हैं तो बदलिए. आशा कार्यकर्त्री ने क्या गलत किया था? उन महिलाओं को समझाया ही तो था? इसमें गलत क्या था?
राजकोष का एक बड़ा हिस्सा कुआदतों को सुधारने में खर्च हो रहा है. प्रति शौचालय ₹12000 का अनुदान. साधन नहीं है, तो इसका सदुपयोग कीजिए. यह धन आपका ही है. अपने टैक्स का है. इसे शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च किया जाए. दूसरी योजनाओं में यह काम आए. यह सब आपके संकल्प से ही संभव होगा.
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