जगदीश लाल | गोरखपुर
गंगाराम यानी वह हाथी जो पिछले दिनों गोरखपुर के गुलरिहा क्षेत्र के मुहम्मदपुर माफी गांव में हत्यारा साबित हुआ. मौजूदा समय में वह कुसम्ही जंगल में सरकारी संरक्षण में है. उस घटना और गंगाराम को लेकर ढेर सारे सवाल ‘सिस्टम’ का पीछा कर रहे हैं. आइए, जो सवाल खड़े हैं आपको उनसे मिलवाते हैं.
लक्ष्मी नारायण यज्ञ के आयोजन की अनुमति मुहम्मदपुर माफी के लोगों ने ली थी? अगर नहीं तो क्या ग्राम प्रधान ने इसकी इत्तला स्थानीय पुलिस प्रशासन और राजस्व विभाग को दी? अगर नहीं तो क्यों? क्या ग्राम पंचायत सेक्रेट्री अथवा हल्का लेखपाल या बीट सिपाही को इसकी जानकारी थी? अगर हां, तो उन्होंने क्या इस बात की जानकारी अपने से वरिष्ठों को दी? अगर नहीं, तो प्रकारांतर से यह काम किसका है या अगर यह लापरवाही है तो किसकी है?
इस घटना में दो महिलाओं समेत एक बच्चे की भी जान चली गई. वह बच्चा अपने घर का इकलौता चिराग था, और बड़ी मिन्नतों के बाद 10 वर्ष बाद पैदा हुआ था. कह नहीं सकते कि जिस घर का चिराग बुझा उस घर के सपनों और उम्मीदों का क्या होगा जो उस परिवार के लोगों ने पाल रखे थे.
मोहम्मदपुर माफी के लोगों के पास भी बताने अथवा कहने के लिए सिर्फ इतना है कि वे यज्ञ ‘बीते बीस साल से करते आ रहे हैं, उनका कभी कोई अनिष्ट नहीं हुआ, बल्कि हर बार इस आस्था के वशीभूत भला ही हुआ’. गौरतलब है कि लक्ष्मी नारायण यज्ञ इस गांव में बीते बीस वर्ष से होता आया है. यह एक आस्था और विश्वास का विषय है. उस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता. यह इसलिए कि ग्रामीण या सामान्य नागरिक और काम कर रहे ‘सिस्टम’ में यही फर्क होता है. सवाल ‘सिस्टम’ पर उठता है. इसलिए कि ‘सिस्टम’ के पास अधिकार होता है, उसके हाथ में नियम और कानून का चाबुक होता है, उसके पास ऐतिहासिक साक्ष्य और किसी समाज के विकास के इतिहास से भी लंबा अनुभव होता है. उसके पास किताबी और व्यावहारिक ज्ञान दोनों होते हैं. ग्रामीणों के पास ऐसा कुछ भी नहीं होता.
बचे रह गए सवाल इस बात का उत्तर चाहते हैं कि गंगाराम का दिमाग एक बार पहले भी 2020 में जब खराब हुआ था, तब उन्होंने अपने महावत सब्बीर को मौत के मुंह डाल दिया था. उस वक्त भी हाय तौबा हुई थी. तब भी प्रशासन सिर्फ इतना कर सका कि गंगाराम जंगल महकमे के हवाले हो गए थे. इसीलिए उन्हें ‘जंगली’ कह कर किनारा कसा जा रहा है. तब भी वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 याद किया गया. चूंकि तब महावत सब्बीर की जान गई थी इसलिए यह उनका ‘व्यक्तिगत रिस्क’ मान कर मामले को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया होगा. तब किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके यतीम हो चले परिवार का क्या होगा. शायद दो कदम आगे बढ़कर समाज ने इसे नियति का खेल समझकर शांत हो गया. शांत तो वह कौशल्या, कांती और नन्हें कृष्ण की जान चली जाने पर भी हो जाएगा. क्योंकि इनमें किसी की भी तरफ से प्रशासन की चौखट पर कोई दस्तक नहीं दी गई है. यानी कोई दरख्वास्त नहीं डाली गई. शायद पड़ेगी भी नहीं क्योंकि नियतिवादी होकर जीने की हममें से बहुतों की आदत पड़ चुकी है.
सवाल शेष है कि क्या होगा उस कानून का जिसे हमारी संसद ने पारित किया. सवाल तो इसका भी उत्तर चाहते हैं कि जिनके अधिकार में इन कानूनों को लागू कराने की जिम्मेदारी है, जो प्रथमत: हाथी को ‘जंगली’ बताकर अपनी जिम्मेदारी से बच जाने में लगे हुए हैं…जो इस तथ्य को ढकने में लगे हुए हैं कि हाथी भाजपा विधायक श्री विपिन सिंह का है…वे चुप क्यों हैं?
बताने के लिए तो यही काफी है कि पूरे जिले में हाथी पालक अथवा हाथियों की संख्या 20 है. लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि डब्ल्यूएलपी ऐक्ट 1972 के तहत लाइसेंस किसी के पास नहीं है. तो लाइसेंस जारी करने, नियम का पालन कराने, न करने पर कारगुजारी पूरी कर दंडित करने अथवा कराने सब बातों का अधिकार भी तो उन्हीं के पास है. पर हम उन्हें गैरजिम्मेदार कह सकते हैं क्या? उत्तर है ‘नहीं’…क्योंकि उनके कार्यों के मूल्यांकन का अधिकार हम नागरिकों के पास नहीं है.
अब आइए आपको ले चलते हैं उन गंगाराम के पास जो इस समय कुसुम्ही जंगल में ‘कैद’ हैं. हाथी यानी गंगाराम के बारे में कई तरह के तथ्य इस घटना के बाद उजागर हो रहे हैं. विशेषज्ञ कहते हैं कि जुलाई से दिसंबर तक का समय हाथियों के लिए परिवार बसाने का होता है. अनुकूल माहौल न मिलने के कारण वे असंतुलित हो सकते हैं. यह कारण गंगाराम के साथ भी हो सकता है. उनका मूड सही करने के लिए विशेषज्ञों की सलाह पर उनका भोजन नियंत्रित किया जा रहा है. उन्हें केला, पीपल व बरगद की पत्तियां दी जा रही हैं. जंगल में उन्हें जहां रखा गया है उस स्थान को चारों तरफ से घेर कर उन्हें ‘तनहाई’ में डाल दिया गया है. यह हिस्सा जंगल का ‘विनोद वन’ कहलाता है. वहां सामान्य जन के आवागमन पर रोक लगा दी गई है. विशेषज्ञ कह रहे हैं कि उन्हें सामान्य होने में तीन से चार अथवा पांच माह लग सकते हैं.
इन बिंदुओं पर विचार इसलिए नहीं किया जाना चाहिए कि हम किसी का दोष सिद्ध कर सकें. दंड निर्धारित कर सकें, बल्कि इसलिए करना चाहिए कि भविष्य में इस तरह की घटना की पुनरावृत्ति न होने पाए.
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