देसज भाषा में बोली जाने वाली एक ज़बरदस्त कहावत। क्या अर्थ होगा, कोई बता सकेगा?
जी! बता सकेंगे वहीं लोग जो पूर्वांचल की माटी से जुड़े होंगे। पूर्वांचल की माटी से तो बहुत सारे लोग जुड़े हैं। करोड़ से ऊपर की आबादी है, पर सबकी बोलचाल की भाषा तक खड़ी बोली हिंदी हो चुकी है।
वजह देसी भाषा में बोले जाने वाली बोली को पिछड़ेपन का प्रतीक मान लिया जाना है। पिछड़ापन भला किसे बर्दाश्त होगा। रहन-सहन और भाषा में पिछड़ा कहा जाना भदेस हो जाना होता है। नतीजतन ऐसी अर्थवान कहावतें अपनी अर्थवत्ता खोती जा रही हैं। इसीलिए यह प्रश्न मौजूं है कि “क्या इनका अर्थ कोई बता सकेगा?”
जी! इसका अर्थ सीधा-सादा है। भोज पदार्थ की सबसे लजीज डिश। यानी “बरी” जो बेसन से तैयार होती है। यह अगर कायदे से नहीं बनाई गई, हुनरमंद हाथों ने इसे नहीं संवारा, सजाया और मसाले तथा नमक का अनुपात सही नहीं रखा और फेंटाई सही से नहीं की, तो यह खाने लायक तो नहीं रहेगी। जायकेदार नहीं रहेगी।
तब इसका हश्र क्या होगा? इसे फेंक दिया जाएगा। कोई गृहिणी होगी तो शायद सरेआम इसकी बेइज्ज़ती पसंद नहीं करेगी। क्योंकि इसमें उसकी इज्ज़त का डर भी शामिल है।
तो वह क्या करेगी? इसे चुपके से पिछवाड़े यानी ऐसी जगह जहां कोई आमतौर से देख न पाए, फेंक देगी। सुपुर्द-ए-खाक कर देगी। देख भी ले तो कोई बुराई नहीं है। बुराई इस बात में है कि बर्फी जैसी स्वादिष्ट चीज़ किसने यहां लाकर फेंक दी? यह प्रश्न किसी सद्गृहस्थ गृहिणी के लिए बहुत भारी होगा। ऐसे में पिछवाड़े ही फेंकना इज़्ज़त बचा लेने जैसा है।
अतः यह मुहावरा जितना बड़ा है, उससे कहीं बड़ा है इसका सामाजिक संदर्भ। पुराने लोगों को अपना जमाना याद होगा। इस तरह की टिप्पणियों से बचने के लिए समाज में बड़ी जद्दोजहद हुआ करती थी। लेकिन अब ऐसे मुहावरों की चिंता करना समाज ने छोड़ दिया है। इसलिए इसके गहरे अर्थ भी बहुधा लोगों को नहीं ज्ञात हैं।
जेवरों का मोह लाज़िम है मगर,
लाज से बड़ा कोई गहना नहीं