सूर्योपासना की परम्परा भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक जीवन का उच्चतम आदर्श प्रस्तुत करती है. सौर पुराण में सूर्य को सर्वश्रेष्ठ देव माना गया है. भारतीय संस्कृति में सूर्य सर्वश्रेष्ठ कर्मयोगी के रूप में प्रतिष्ठित हैं. सूर्य के सात घोड़े निष्काम कर्म योग के प्रतीक है. रामायण व महाभारत में तो सूर्योपासना के द्वारा परमात्मा रूप राम ने रावण पर विजय प्राप्त की और युधिष्ठिर ने अक्षय पात्र प्राप्त किया. ब्रह्मपुराण के अनुसार सूर्य की एक दिन की पूजा करोड़ों यज्ञ के अनुष्ठान से बढ़ कर है. सूर्योदय से सूर्यास्त तक सूर्योन्मुख होकर मंत्र या स्तोत्र का पाठ लाभकारी होता है. षष्ठी या सप्तमी तिथियों को दिनभर उपवास कर भगवान भास्कर की पूजा करना पूर्ण व्रत होता है.
पौराणिक धारणा के अनुसार जो पदार्थ भगवान सूर्य के लिए अर्पित किए जाते है, भगवान सूर्य उन्हें लाख गुना करके लौटाते हैं.सूर्यषष्ठी व्रत से पुत्र की प्राप्ति होती है. चर्म रोग व सूर्य जनित अनेक कष्ट दूर करने की कामना के साथ भी इस व्रत को करते हैं. छठ पूजा में भगवान सूर्य की अर्चना के साथ ही छठी माता के रूप में सूर्यदेव की धर्मपत्नी संज्ञा देवी की भी पूजा की जाती है. शिल्पियों के आराध्य देव विश्वकर्मा भगवान की पुत्री देवी संज्ञा हैं.
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वैज्ञानिकता से है गहरा नाता
भारतीय शास्त्र के अनुसार सूर्य आत्मा है तो चन्द्रमा बल है. सूर्य पृथ्वी के उत्तरी भू-भाग पर करीब 90 प्रतिशत रहता है, शेष दक्षिण भाग में समुद्र है. इस काल में सूर्य उत्तर भाग से दूर होते हैं, ऐसे में उत्तर भाग के रहने वाले उन्हें नमन और प्रणाम करते है कि अपनी कृपा बनाए रखें.
मिथिलांचल से शुरू हुआ पर्व
दरभंगा मिथिलांचल का क्षेत्र उत्तर भाग का छोर है. यहां से ही सूर्य षष्ठी व्रत आरंभ हुआ है. इस समय जब सूर्य उत्तर भाग से दूर होते हैं तो यह क्षेत्र और भी दूर हो जाता है. व्रत का पौराणिक आधार महर्षि च्यवन की अस्वस्थता को देखकर उनकी युवा पत्नी सुकन्या ने सर्वप्रथम इस व्रत को आरंभ किया था. इस व्रत के प्रभाव से वृद्ध महर्षि पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गए थे.
शुद्धता है मूल आधार
इस व्रत के दौरान शुद्धता और संयम मुख्य है. व्रत के दौरान तय नियम के तहत ही व्रती महिलाएं आचरण करती है. पूजन में चढ़ाने के लिए ठोकवा बनाना भी अपने आप में कठिन व्रत है. शुद्धता के मद्देनजर ठोकवा बनाने के लिए गेहूं छत पर सुखाते समय, चिड़िया भी चोंच न मार दे,इसका ख्याल रखा जाता है.
दिनभर रखते हैं व्रत
चार दिनों तक मनाए जाने वाले छठ महापर्व के दूसरे दिन को खरना कहा जाता है. इस दिन व्रती सुबह से लेकर सूर्यास्त तक बिना अन्न-जल के रहते हैं. शाम में भगवान सूर्य को भोग लगाते हैं. इसके बाद ही खुद खाते हैं.खरना का प्रसाद लेने के लिए आसपास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है.
…तो छोड़ना पड़ता है खाना
यह व्रत काफी कठिन होता है. जब तक व्रती प्रसाद ग्रहण करते हैं तब तक वे मौन व्रत धारण करते हैं. परंपरा है कि जब व्रती खरना करते हैं अथवा दिनभर निर्जला रहकर प्रसाद ग्रहण करते हैं उस समय थोड़ी भी आवाज नहीं होनी चाहिए. यदि प्रसाद ग्रहण करते समय कोई आवाज होती है तो व्रती को खाना वहीं छोड़ना पड़ता है. छठ के खत्म होने पर ही वह कुछ ग्रहण कर सकती है. इससे पहले एक खर यानी तिनका भी मुंह में नहीं डाल सकती इसलिए इसे खरना कहा जाता है.
आम की लकड़ी पर प्रसाद
खरना के दिन मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी जलाकर खीर तैयार की जाती है. शाम को सूर्य की आराधना कर उन्हें भोग लगाया जाता है और फिर व्रतधारी प्रसाद ग्रहण करती है. इस दौरान नियमों का विशेष ध्यान रखना होता है. धातु के बर्तन में कद्दू सिर्फ धातु के बर्तन ही उपयोग में आते हैं. पीतल, कांसा या फूल के बर्तन, मिट्टी का चूल्हा और आम की लकड़ी से अरवा चावल, चना दाल, कद्दू की सब्जी नहाय-खाय के दिन का प्रसाद माना जाता है.
पहला दिन : नहाय-खाय
व्रत का पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी का होता है जिसे व्रती नहाय-खाय के रूप में मनाते हैं. नहाय खाय के दिन छठ व्रती सुबह उठकर आम के दातून (दतवन) से दांत साफ करते हैं. महिलाएं पांव रंगती हैं और पुरुष स्नान के बाद जनेउ बदलते हैं. नदी, जलाशय, पोखर, आहर या नहर में व्रती डुबकी लगाते हैं. इस दिन कद्दू-भात ग्रहण किया जाता है.
दूसरा दिन : खरना
खरना के प्रसाद में गंगाजल, दूध, गुड़, चावल की खीर और फल भगवान सूर्य को समर्पित करते हैं. आम की लकड़ी से खरना का प्रसाद बनाने का विधान है. गेहूं के दाने कोई पक्षी जूठा नहीं करे, इसलिए पहरे लगाए जाते हैं. व्रती रोटी और रसियाव (गुड़ से बनी खीर) खाकर व्रत तोड़ती हैं. इस दिन नमक और चीनी का उपयोग नहीं किया जाता.
तीसरा दिन : सांध्य अर्ध्य
अगले दिन निर्जला रहकर पीला वस्त्र धारण कर व्रती शाम में गंगा या अन्य नदी-सरोवर में स्नान करते हैं. पानी में खड़े होकर बांस के सूप में ठेकुआ, नारियल, केला और अन्य फल-पकवान भरकर डूबते सूर्य को अर्घ्य देते हैं. प्रसाद में ठेकुआ और चावल के लहू बनाए जाते हैं. व्रती परिवार के साथ घाट पर जाते हैं जहां वे डूबते सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य देते हैं.
चौथा दिन : प्रातःकालीन अर्घ्यदान
सांध्यकालीन अर्घ्य के बाद अगली सुबह उसी नदी-तालाब के घाट पर व्रती स्नान कर उगते सूर्य को अर्घ्य दान करते हैं. अर्घ्य देने के बाद श्रद्धालु कच्चे दूध का शरबत पीकर और प्रसाद खाकर अपना व्रत तोड़ते हैं. व्रत तोड़ने के लिए व्रती ठेकुआ ग्रहण करते हैं. इसके बाद प्रसाद वितरित किया जाता है.