डॉक्टर के दंभ और निलंबित सिपाही की पीड़ा का आमना-सामना है हाल की घटना
शहर के क्लीनिक में हाल में ही घटी एक घटना अब सियासी उबाल ले रही है. सिपाही के पक्ष में लोगों का एक-एक करके आते जाना सिर्फ संयोग भर नहीं है. मौजूदा दौर में, गोरखपुर शहर में प्रैक्टिस कर रहे चिकित्सकों पर से भरोसा डगमगाने की कहानी कोई एक-दो दिन में नहीं लिखी गई है.
मरीज़ की चिकित्सक से भला क्या दुश्मनी हो सकती है. वह तो आंखें बंद करके अपने दुखों के समाधान के लिए उसकी शरण में पहुंचता है. उसे क्या पता कि वह जिस चिकित्सक पर भरोसा करने जा रहा है, उसकी चिंता के केंद्र में तो एमआरआई मशीन की कीमत है. गौरतलब है कि ताज़ा प्रकरण में एक चिकित्सक का बयान आया है, ‘एमआरआई मशीन छह करोड़ की आती है, इस पर मेंटिनेंस का खर्चा 15 लाख रुपये आता है’.
गोरखपुर में प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे डॉक्टरों से भरोसा डिगने की पटकथा करीब दो दशक से लिखी जा रही है. दो सवालों पर गौर करें — पहला, ऐसे चिकित्सकों के लिए गोरखपुर शहर क्यों प्रियकर है? और दूसरा, मरीज़ के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह ये चिकित्सक किस हद तक करते हैं? इन दोनों ही सवालों के जवाब एक-दूसरे के पूरक हैं. पहले सवाल का आसान-सा जवाब है कि गोरखपुर शहर में मेडिकली इललिट्रेट मरीज़ों की भरमार है, जिन्हें भरमाना बेहद आसान है. और दूसरे सवाल का जवाब एक चिकित्सक के क्लीनिक पर हुई नंगई से ही जाहिर है.
निजी चिकित्सकों को पहले यह समझ लेना चाहिए कि हाल में घटित वाकया संपूर्ण चिकित्सा जगत का सच नहीं है. यह सच सिर्फ और सिर्फ निजी चिकित्सालयों का है. और इस वाकये को एक आपराधिक मामले में रूप में ही देखा जाना चाहिए. यह घटना किसी ‘सेवा-समर्पित चिकित्सालय’ में नहीं घटित हुई है. यह वारदात पैसों की प्यास और आर्थिक तंगी के बीच की टकराहट है, यह घटना एक डॉक्टर के दंभ और एक निलंबित सिपाही की पीड़ा का आमना-सामना है.
शहर में हर आदमी इस तथ्य से वाकिफ़ है और यह ‘समझ’ अब आम हो चली है कि अगर बीमारी गंभीर है, तो ‘गोरखपुर के डॉक्टरों’ के हाथों जान मत गंवाएं. ऐसे मामलों में कोई भी सहज सुझाव दे देता है कि लखनऊ केजीएमसी, मेदांता, सहारा या दिल्ली एम्स, मेदांता, या फलां अस्पताल चले जाना श्रेयस्कर है. गौरतलब है कि यह ‘समझ’ आंख मूंदकर धंधा कर रहे शहर के निजी चिकित्सालयों के अहंकार, धूर्तता और गैरज़िम्मेदार रवैये का नतीजा है.
अभी मैंने ‘मेडिकली इललिट्रेट’ की बात कही. ये वो तबका है, और यह हमेशा रहेगा, जो ‘मेडिकल स्टोर वाले डॉक्टर’ को दिखाकर भी दवाएं खा लेता है. ऐसे लोग नामी चिकित्सक की मुंहमांगी फीस भी चुकाते हैं, और उनके प्रिस्क्रिप्शन पर कभी कोई सवाल भी नहीं पूछते. यही तबका है जो गोरखपुर के ऐसे निजी चिकित्सालयों के लिए ‘हीरों की खान’ है. वे आंखें बंद करके सब मान लेते हैं और कोई गड़बड़ हो जाए, तो बस चुपचाप किस्मत को कोस लेते हैं.
महंगे उपकरणों का हवाला देकर, किसी अधर्मी चिकित्सक की हरकतों को वाज़िब ठहराने और थोथे तर्क देने से सच न तो बदलेगा, और न ही मिटेगा. मनमानी फीस वसूलकर निजी चिकित्सक अपने यहां बाउंसरों की संख्या बढ़ा सकते हैं, मरीज का भरोसा नहीं जीत सकते. गोरखपुर के निजी चिकित्सालय सिर्फ पैसों की भाषा में बात करना जानते हैं. उनके सारे तर्कों के लिए बस गीत की एक लाइन ही पर्याप्त है…’बापू सेहत के लिए तू तो हानीकारक है…’
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