दुबे जी एक तरफ सिंह साहब दूसरी तरफ।

दुबे जी तर्क कर रहे थे। अच्छे पढ़े-लिखे लड़के अब प्राइवेट सेक्टर में जा रहे हैं। वहां उनके ज्ञान और कौशल का महत्व है। कंपनियां उन्हें अच्छी तनख्वाह दे रही हैं। टैलेंट है इसलिए आगे बढ़ाने में देर नहीं होती। वे अपने तर्क के समर्थन में एक से बढ़कर एक उदाहरण पेश कर रहे हैं। वे साधिकार कह रहे हैं। सरकारी नौकरी में वे लोग जाना चाहते हैं जो काहिल हैं। मेहनत नहीं करना चाहते।

ठाकुर साहब की दुबे जी के कथन पर घोर आपत्ति है। वह कहते हैं सरकारी नौकरियों का निजी क्षेत्र की नौकरियों से कौन मुकाबला है। टैलेंटेड लोग, पढ़े लिखे लोग आईएएस, पीसीएस की नौकरियां करते हैं। कठिन तैयारी, प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना। सोने की तरह से तपकर निकालना। यह गर्व और गौरव की बात होती है। निजी क्षेत्र में नौकरी करने वाला इसका क्या मुकाबला करेगा। पढ़े लिखे लोग डॉक्टर, प्रोफेसर इंजीनियर हो जाते हैं। वे घर परिवार का मान बढ़ाते हैं, समाज की सेवा करते हैं। जलवे के साथ जीवन व्यतीत करते हैं।

उन दोनों लोगों की बहस को अपने हाथ में लेते हुए प्रोफ़ेसर साहब आगे आए। बोले और बोलते ही गए। आज से दो दशक पहले सरकारी नौकरियों का क्रेज था।

आईएएस, पीसीएस, डॉक्टर, इंजीनियर का उदाहरण छोड़ दें। सबॉर्डिनेट सर्विसेज, बैंक और रेलवे के क्लर्कों तक का जलवा था। हसरत से उन्हें लोग देखते थे। शादी आई तो दहेज में मोटी रकम और सौगातें मिला करती थीं। अब सरकारी नौकरियों का वह क्रेज नहीं रहा। छोटे-मोटे पदों पर नौकरी करने वाले भी अगर ऊपर की कमाई ना हो तो उनके लिए बेकार हैं। जिसे भ्रष्टाचार कहते हैं उसकी दुर्गंध यहीं मिलेगी।

ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जहां लोग रजिस्टर पर हाजिरी लगाकर निजी काम में लग जाते हैं। कमाऊ काउंटर नहीं है तो कमाई के वैकल्पिक साधन खोज रखे हैं। इसमें ठेके पट्टे से लेकर ट्रांसपोर्ट तक के व्यवसाय में लगे लोग मिल जाएंगे।

इस तरह की सोच वाले सर्वाधिक मध्यम वर्ग के लोग ही होते हैं। बोलते, बोलते प्रोफेसर कहीं खो जाते हैं। कहते हैं, एक समय था जब-

उत्तम खेती, मध्यम बान,
निकृष्ट चाकरी भीख निदान।

समाज का मनोविज्ञान पहले यह हुआ करता था। अब तस्वीर उल्टी है। नौकरी हो तो मलाईदार सीट चाहिए, काम करने न पड़ें। सरकारी नौकरियों में सेवा और समर्पण का भाव चला गया। ठीक इसके उलट निजी क्षेत्र पनप रहे हैं। यही मध्यवर्गीय घरों से जाने वाले पढ़े-लिखे लड़के अपना खून पसीना एक कर रहे हैं। निजी पूंजी निजी घरानों को मजबूत कर रही है। सरकारी व्यवस्था नित्य प्रति कमजोर होती जा रही है।

यहां तहजीब बिकती है यहां फरमान बिकते हैं,
जरा तुम दाम तो बोलो यहां ईमान बिकते हैं।

इससे उबरने का उपाय सबको मिलकर सोचना होगा।



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By जगदीश लाल

हिंदी पत्रकारिता से करीब चार दशकों तक सक्रिय जुड़ाव. संप्रति: लेखन, पठन-पाठन.