घुघुली स्टेशन पर जाड़े की उस रात मालगाड़ी में मैंने जो देखा वह अब भी रोंगटे खड़े कर देता है. यह बात कोई साल 1991 की है. मैं उस समय बारहवीं में पढ़ रहा था और घुघुली कस्बे में रहता था. मैं डीएवी नारंग इंटर कॉलेज का छात्र था.

रोजाना की तरह मैं उस रोज भी मैं शाम करीब साढ़े सात-आठ बजे पैदल ही डीएवी नारंग इंटर कॉलेज से होकर घुघुली रेलवे स्टेशन पहुंचा था. जाड़े के दिनों में मैं रोज खाना खाने के बाद पैदल घूमते हुए रेलवे स्टेशन पर पहुंचता था और काफी देर तक वहीं एक बेंच पर जाने किस ट्रेन के इंतजार में बैठा रहता था. मुझे जाना कहीं नहीं होता था, लेकिन ट्रेन का वह इंतजार मुझे अच्छा लगता था.

उस रोज मैं प्लेटफॉर्म पर गोरखपुर की दिशा की ओर टहलकदमी कर रहा था. बीच की लाइनों पर एक मालगाड़ी खड़ी थी. ठंड इस कदर थी कि लोहे का खंभा अगर छू जाए तो जैसे करंट लग रहा ​था. मफलर लपेटे हुए मैं बस स्टेशन पर जल रहे बल्ब की रोशनी से जहां तक दिखा रहा था, वहां तक जाना चहता था.

मैं अपनी धुन में गुनगुनाते हुए चला जा रहा था, निगाहें कभी इस ओर तो कभी उस ओर बस यूं ही दौड़ रही थीं. इसी बीच मैंने देखा कि बीच की पटरी पर खड़ी मालगाड़ी के एक डिब्बे की अधखुली खिड़कियों से जैसे कोई पटरी पर कूद गया. मुझसे उसकी दूरी कोई पचास मीटर भी नहीं रही होगी.



मैं आवाज़ दी…कौन है? उसने जैसे काली पैंट, शर्ट, मफलर…सबकुछ काला-काला सा पहन रखा था. उस ओर घुप्प अंधेरा था, लिहाज़ा कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. मैं ठिठक गया. वह आकृति पटरियों पर कूदकर बहुत तेजी से जैसे मालगाड़ी के नीचे की ओर कहीं छिप गई. मैंने फिर आवाज़ दी…कौन है?

कोई जवाब नहीं आया…बस सन्नाटे में झींगुरों की आवाज़ कानों को चीर रही थी. एक पल के लिए मुझे ठंड में भी पसीने का अहसास होने लगा. खड़ी मालगाड़ी से कूदना तो ठीक है, लेकिन वह छाया फिर मालगाड़ी के नीचे कहां छिप गई? दूर कहीं से कुत्तों के भौंकने की आवाजें आने लगीं. इस बीच लगा जैसे सिसवां की तरफ से कोई ट्रेन आ रही हो….लेकिन फिलहाल वहां कोई हरकत नहीं थी.

मैंने थोड़ा साहस बटोरा…धीरे कदमों से आहिस्ते से मालगाड़ी की ओर जाने की हिम्मत कर पाया. पीछे मुड़कर देखा तो दूर स्टेशन पर लाइट जल रही थी. मैं मालगाड़ी की उस खिड़की के पास पहुंचा. झुककर मद्धिम रोशनी में रेल की पटरी पर देखने की कोशिश की….मुझे जैसे करंट लग गया…मालगाड़ी के पहिये से दो टुकड़ों में कटा हुआ एक शरीर वहां पड़ा था.

मेरा शरीर जैसे एकदम सूख गया. जीवन में पहली बार ऐसा कुछ देखा था. मुझे लगा जैसे अभी उल्टी हो जाएगी और जो भी खाया-पीया है वह सब बाहर आ जाएगा. अगले ही पल लगने लगा कि मेरी पैंट वहीं खराब हो जाएगी. ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि उस वक्त मुझे क्या क्या महसूस हुआ था.

उस रोज़ मैं जैसे-तैसे घर पहुंचा था. रात के पौने नौ बज रहे थे. मैंने मां से कहा कि मुझे बुखार जैसा लग रहा है. उसने छूकर देखा तो मेरा शरीर तप रहा था. पिताजी कस्बे की एक दुकान से बुखार की दवा लाए. मैंने किसी से कुछ नहीं बताया और दवा खाकर सो गया.

सुबह उठा तो बरामदे में पिताजी ढाले के उस ओर रहने वाले किसी व्यक्ति की बात कर रहे थे, फलाने का बेटा कहीं बाहर कमाने गया था. कल वह घुघुली स्टेशन पर ट्रेन से कट गया. यह सुनकर मैंने उनसे तुरंत पूछा कि कौन कटा था, कितने बजे की घटना है यह? पिताजी ने बताया कि कल दोपहर की. रेल पुलिस वाले दो टुकड़ों में बंटे शव को जैसे-तैसे ले जा पाए.

यह सुनकर मुझे फिर से सिहरन सी होने लगी. मैंने पिताजी से पूछा कि कल रात में भी स्टेशन पर कोई कटा था क्या? उन्होंने कहा— नहीं, यह घटना कल दिन में हुई थी.

मेरा सिर चकराने लगा…तो रात में मैंने मालगाड़ी के पहियों के नीचे जिसे कटा देखा वह कौन था? क्या कहीं उस युवक की रूह तो नहीं थी, जो शरीर से बाहर आकर बेचैन थी?


(यह आलेख घुघुली के मूलनिवासी धर्मेंद्र की आपबीती पर आधारित एक कथालेख है. हम इस घटना की सत्यता का दावा नहीं करते हैं. अगर आपका भी कोई ऐसा अनुभव है तो हमें अपने नाम और पते के साथ वॉट्सऐप करें—7834836688).


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By गो गोरखपुर

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